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निगाहों से छुप कर कहाँ जाइएगा – जिगर मुरादाबादी

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जिगर मुरादाबादी 20 वीं सदी के सबसे प्रसिद्ध उर्दू कवि और उर्दू गजल के प्रमुख हस्ताक्षरों में से एक हैं. उनकी एक ग़ज़ल पढ़िए – “निगाहों से छुप कर कहाँ जाइएगा” .

Jigar Moradabadi

निगाहों से छुप कर कहाँ जाइएगा
जहाँ जाइएगा, हमें पाइएगा

मिटा कर हमें आप पछताइएगा
कमी कोई महसूस फ़र्माइएगा

नहीं खेल नासेह! जुनूँ की हक़ीक़त
समझ लीजिए तो समझाइएगा

कहीं चुप रही है ज़बाने-महब्बत
न फ़र्माइएगा तो फ़र्माइएगा

इक बार कहो तुम मेरी हो – इब्ने इंशा

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इब्न-ए-इंशा पाकिस्तान के मशहूर वामपंथी कवि और लेखक हैं. उनकी एक बेहद खूबसूरत ग़ज़ल पढ़ें जिसका शीर्षक है “इक बार कहो तुम मेरी हो”.

Ibne Insha

हम घूम चुके बस्ती-बन में
इक आस का फाँस लिए मन में
कोई साजन हो, कोई प्यारा हो
कोई दीपक हो, कोई तारा हो
जब जीवन-रात अंधेरी हो
इक बार कहो तुम मेरी हो।

जब सावन-बादल छाए हों
जब फागुन फूल खिलाए हों
जब चंदा रूप लुटाता हो
जब सूरज धूप नहाता हो
या शाम ने बस्ती घेरी हो
इक बार कहो तुम मेरी हो।

हाँ दिल का दामन फैला है
क्यों गोरी का दिल मैला है
हम कब तक पीत के धोखे में
तुम कब तक दूर झरोखे में
कब दीद से दिल की सेरी हो
इक बार कहो तुम मेरी हो।

क्या झगड़ा सूद-ख़सारे का
ये काज नहीं बंजारे का
सब सोना रूपा ले जाए
सब दुनिया, दुनिया ले जाए
तुम एक मुझे बहुतेरी हो
इक बार कहो तुम मेरी हो।

ख़याल कीजिये क्या काम आज मैं ने किया – इब्ने इंशा

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इब्न-ए-इंशा पाकिस्तान के मशहूर वामपंथी कवि और लेखक हैं. उनकी एक बेहद खूबसूरत ग़ज़ल पढ़ें जिसका शीर्षक है “ख़याल कीजिये क्या काम आज मैं ने किया”.

Ibne Insha

ख़याल कीजिये क्या काम आज मैं ने किया|
जब उन्ने दी मुझे गाली सलाम मैं ने किया|

कहा ये सब्र ने दिल से के लो ख़ुदाहाफ़ीज़,
के हक़-ए-बंदगी अपना तमाम मैं ने किया|

झिड़क के कहने लगे लब चले बहुत अब तुम,
कभी जो भूल के उनसे कलाम मैं ने किया|

हवस ये रह गई साहिब ने पर कभी न कहा,
के आज से तुझे “इंशा” ग़ुलाम मैंने किया|

ऐ मुँह मोड़ के जाने वाली – इब्ने इंशा

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इब्न-ए-इंशा पाकिस्तान के मशहूर वामपंथी कवि और लेखक हैं. उनकी एक बेहद खूबसूरत ग़ज़ल पढ़ें जिसका शीर्षक है “ऐ मुँह मोड़ के जाने वाली”.

Ibne Insha

ऐ मुँह मोड़ के जाने वाली, जाते में मुसकाती जा
मन नगरी की उजड़ी गलियाँ सूने धाम बसाती जा

दीवानों का रूप न धारें या धारें बतलाती जा
मारें हमें या ईंट न मारें लोगों से फ़रमाती जा

और बहुत से रिश्ते तेरे और बहुत से तेरे नाम
आज तो एक हमारे रिश्ते मेहबूबा कहलाती जा

पूरे चाँद की रात वो सागर जिस सागर का ओर न छोर
या हम आज डुबो दें तुझको या तू हमें बचाती जा

हम लोगों की आँखें पलकें राहों में कुछ और नहीं
शरमाती घबराती गोरी इतराती इठलाती जा

दिलवालों की दूर पहुँच है ज़ाहिर की औक़ात न देख
एक नज़र बख़शिश में दे के लाख सवाब कमाती जा

और तो फ़ैज़ नहीं कुछ तुझसे ऐ बेहासिल ऐ बेमेहर
इंशाजी से नज़में ग़ज़लें गीत कबत लिखवाती जा

और तो कोई बस न चलेगा – इब्ने इंशा

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इब्न-ए-इंशा पाकिस्तान के मशहूर वामपंथी कवि और लेखक हैं. उनकी एक बेहद खूबसूरत ग़ज़ल पढ़ें जिसका शीर्षक है “और तो कोई बस न चलेगा”.

Ibne Insha और तो कोई बस न चलेगा हिज्र के दर्द के मारों का|
सुबह का होना दूभर कर दें रस्ता रोक सितारों का|

झूठे सिक्कों में भी उठा देते हैं अक्सर सच्चा माल,
शक्लें देख के सौदा करना काम है इन बंजारों का|

अपनी ज़ुबां से कुछ न कहेंगे चुप ही रहेंगे आशिक़ लोग,
तुम से तो इतना हो सकता है पूछो हाल बेचारों का|

एक ज़रा सी बात थी जिस का चर्चा पहुंचा गली गली,
हम गुमनामों ने फिर भी एहसान न माना यारों का|

दर्द का कहना चीख उठो दिल का तक़ाज़ा वज़’अ निभाओ,
सब कुछ सहना चुप चुप रहना काम है इजाज़त-दारों का|

मस्ती के फिर आ गये ज़माने – हसरत मोहानी

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हसरत मोहानी ने अपने कलामो में हुब्बे वतनी, मुआशरते इस्लाही,कौमी एकता, मज़हबी और सियासी नजरियात पर प्रकाश डाला है. आज उनकी एक ग़ज़ल “अड़” पढ़िए.

Hasrat Mohani

मस्ती के फिर आ गये ज़माने
आबाद हुए शराबख़ाने

हर फूल चमन में ज़र-ब-कफ़ है
बाँटे हैं बहार ने ख़ज़ाने

सब हँस पड़े खिलखिला के ग़ुंचे
छेड़ा जो लतीफ़ा सबा ने

सरसब्ज़ हुआ निहाले-ग़म भी
पैदा वो असर किया हवा ने

रिन्दों ने पिछाड़कर पिला दी
वाइज़ के न चल सके बहाने

कर दूँगा मैं हर वली को मयख़्वार
तौफ़ीक़ जो दी मुझे ख़ुदा ने

हमने तो निसार कर दिया दिल
अब जाने वो शोख़, या न जाने

बेग़ाना-ए-मय किया है मुझको
साक़ी की निगाहे -आश्ना ने

मसकन है क़फ़स में बुलबुलों का
वीराँ पड़े हैं आशियाने

अब काहे को आएँगे वो ‘हसरत’
आग़ाज़े-जुनूँ के फिर ज़माने

जज़्ब-ए-कामिल को असर अपना दिखा देना था – हसरत मोहानी

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हसरत मोहानी ने अपने कलामो में हुब्बे वतनी, मुआशरते इस्लाही,कौमी एकता, मज़हबी और सियासी नजरियात पर प्रकाश डाला है. आज उनकी एक ग़ज़ल “जज़्ब-ए-कामिल को असर अपना दिखा देना था” पढ़िए.

Hasrat Mohani

जज़्ब-ए-कामिल को असर अपना दिखा देना था
मेरे पहलू में उन्हें ला के बिठा देना था

कुछ तो देना था तेरे तघाफुल का जवाब
या खुदा बन के तुझे दिल से भुला देना था

तेर-ए-जाँ के सिवा किसको बनाते क़ासिद
उस सितम गर को पैग़ाम-ए-क़ज़ा देना था

दर्द मोहताज-ए-दावा हो ये सितम है या रब
जब दिया था तो कुछ इस से भी सवा देना था

वो जो बिगाड़े तो ख़फा तुम भी हुए क्यों “हसरत”
पा-ए-नकुव्वत पे सर-ए-शौक़ झुका देना था

जज़्ब-ए-कामिल को असर अपना दिखा देना था – हसरत मोहानी

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हसरत मोहानी ने अपने कलामो में हुब्बे वतनी, मुआशरते इस्लाही,कौमी एकता, मज़हबी और सियासी नजरियात पर प्रकाश डाला है. आज उनकी एक ग़ज़ल “अड़” पढ़िए.

Hasrat Mohani

तोड़ कर अहद-ए-क़रम न-आशना हो जाइए
बंदा परवर जाइए अच्छा ख़फा हो जाइए

राह में मिलिए कभी मुझ से तो अज़ारा-ए-सितम
होंठ अपने काट कर फ़ौरन जुदा हो जाइए

जी में आता है के उस शोख़-ए-तघाफुल केश से
अब न मिलिए फिर कभी और बेवफा हो जाइए

हाए रे बे-इख्तियारी ये तो सब कुछ हो मगर
उस सरापा नाज़ से क्यूँ कर ख़फा हो जाइए

देखना भी तो उन्हें दूर से देखा करना – हसरत मोहानी

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हसरत मोहानी ने अपने कलामो में हुब्बे वतनी, मुआशरते इस्लाही,कौमी एकता, मज़हबी और सियासी नजरियात पर प्रकाश डाला है. आज उनकी एक ग़ज़ल “देखना भी तो उन्हें दूर से देखा करना” पढ़िए.

Hasrat Mohani

देखना भी तो उन्हें दूर से देखा करना
शेवा-ए-इश्क़ नहीं हुस्न को रुसवा करना

इक नज़र ही तेरी काफ़ी थी कि आई राहत-ए-जान
कुछ भी दुश्वार न था मुझ को शकेबा करना

उन को यहाँ वादे पे आ लेने दे ऐ अब्र-ए-बहार
जिस तरह चाहना फिर बाद में बरसा करना

शाम हो या कि सहर याद उन्हीं की रख ले
दिन हो या रात हमें ज़िक्र उन्हीं का करना

कुछ समझ में नहीं आता कि ये क्या है ‘हसरत’
उन से मिलकर भी न इज़हार-ए-तमन्ना करना

घिर के आख़िर आज बरसी है घटा बरसात की – हसरत मोहानी

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हसरत मोहानी ने अपने कलामो में हुब्बे वतनी, मुआशरते इस्लाही,कौमी एकता, मज़हबी और सियासी नजरियात पर प्रकाश डाला है. आज उनकी एक ग़ज़ल “घिर के आख़िर आज बरसी है घटा बरसात की” पढ़िए.

Hasrat Mohani

घिर के आख़िर आज बरसी है घटा बरसात की
मैकदों में कब से होती थी दुआ बरसात की

मूजब-ए-सोज़-ओ- सुरूर-ओ-बायस-ए-ऐश-ओ-निशात
ताज़गी बख़्श-ए-दिल-ओ-जाँ है हवा बरसात की

शाम-ए-सर्मा दिलरुबा था, सुबह-ए-गर्मा ख़ुशनुमा
दिलरुबा तर, खुशनुमा तर है फ़ज़ा बरसात की

गर्मी-ओ-सर्दी के मिट जाते हैं सब जिससे मर्ज़
लाल लाल एक ऐसी निकली है दवा बरसात की

सुर्ख़ पोशिश पर है ज़र्द-ओ-सब्ज़ बूटों की बहार
क्यों न हों रंगीनियाँ तुझपर फ़िदा बरसात की

देखने वाले हुए जाते हैं पामाल-ए-हवस
देखकर छब तेरी ऐ रंगीं अदा बरसात की