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सोज़े-ग़म देके उसने ये इरशाद किया – जोश मलीहाबादी

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जोश मलीहाबादी उर्दू साहित्य में उर्दू पर अधिपत्य और उर्दू व्याकरण के सर्वोत्तम उपयोग के लिए जाने जाते है. उनकी एक ग़ज़ल पढ़िए – “सोज़े-ग़म देके उसने ये इरशाद किया”.

Josh Malihabadi

सोज़े-ग़म देके उसने ये इरशाद किया ।
जा तुझे कश्मकश-ए-दहर से आज़ाद किया ।।

वो करें भी तो किन अल्फ़ाज में तिरा शिकवा,
जिनको तिरी निगाह-ए-लुत्फ़ ने बर्बाद किया ।

दिल की चोटों ने कभी चैन से रहने न दिया,
जब चली सर्द हवा मैंने तुझे याद किया ।

इसका रोना नहीं क्यों तुमने किया दिल बरबाद,
इसका ग़म है कि बहुत देर में बरबाद किया ।

इतना मासूम हूँ फितरत से, कली जब चटकी
झुक के मैंने कहा, मुझसे कुछ इरशाद किया

मेरी हर साँस है इस बात की शाहिद-ए-मौत
मैंने ने हर लुत्फ़ के मौक़े पे तुझे याद किया

मुझको तो होश नहीं तुमको खबर हो शायद
लोग कहते हैं कि तुमने मुझे बर्बाद किया

वो तुझे याद करे जिसने भुलाया हो कभी
हमने तुझ को न भुलाया न कभी याद किया

कुछ नहीं इस के सिवा ‘जोश’ हारीफ़ों का कलाम
वस्ल ने शाद किया, हिज्र ने नाशाद किया

ये दिन बहार के अब के भी रास न आ सके – जिगर मुरादाबादी

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जिगर मुरादाबादी 20 वीं सदी के सबसे प्रसिद्ध उर्दू कवि और उर्दू गजल के प्रमुख हस्ताक्षरों में से एक हैं. उनकी एक ग़ज़ल पढ़िए – “ये दिन बहार के अब के भी रास न आ सके” .

Jigar Moradabadi

ये दिन बहार के अब के भी रास न आ सके
कि ग़ुंचे खिल तो सके खिल के मुस्कुरा न सके

मिरी तबाही ए दिल पर तो रहम खा न सके
जो रोशनी में रहे रोशनी को पा न सके

न जाने आह कि उन आँसूओं पे क्या गुज़री
जो दिल से आँख तक आये मिज़ा तक आ न सके

रह-ए-ख़ुलूस-ए-मुहब्बत के हादसात-ए-जहाँ
मुझे तो क्या मेरे नक़्श-ए-क़दम मिटा न सके

करेंगे मर के बक़ाए-दवाम क्या हासिल
जो ज़िंदा रह के मुक़ाम-ए-हयात पा न सके

नया ज़माना बनाने चले थे दीवाने
नई ज़मीं नया आसमाँ बना न सके

हर इक सूरत हर इक तस्वीर मुबहम होती जाती है – जिगर मुरादाबादी

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जिगर मुरादाबादी 20 वीं सदी के सबसे प्रसिद्ध उर्दू कवि और उर्दू गजल के प्रमुख हस्ताक्षरों में से एक हैं. उनकी एक ग़ज़ल पढ़िए – “हर इक सूरत हर इक तस्वीर मुबहम होती जाती है” .

Jigar Moradabadi

हर इक सूरत हर इक तस्वीर मुबहम होती जाती है
इलाही, क्या मिरी दीवानगी कम होती जाती है

ज़माना गर्मे-रफ्तारे-तरक्क़ी होता जाता है
मगर इक चश्मे -शायर है की पुरनम होती जाती है

यही जी चाहता है छेड़ते ही छेड़ते रहिये
बहुत दिलकश अदाए-हुस्ने-बरहम होती जाती है

तसव्वुर रफ़्ता-रफ़्ता इक सरापा बनाता जाता है
वो इक शै जो मुझी में है ,मुजस्सिम होती जाती है

वो रह-रहकर गले मिल-मिलके रुख़सत होते जाते है
मिरी आँखों से या रब ! रौशनी कम होती जाती है

‘जिगर’ तेरे सुकूते-ग़म ने ये क्या कह दिया उनसे
झुकी पड़ती है नज़रे ,आंख पुरनम होती जाती है

फ़ुर्सत कहाँ कि छेड़ करें आसमाँ से हम – जिगर मुरादाबादी

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जिगर मुरादाबादी 20 वीं सदी के सबसे प्रसिद्ध उर्दू कवि और उर्दू गजल के प्रमुख हस्ताक्षरों में से एक हैं. उनकी एक ग़ज़ल पढ़िए – “फ़ुर्सत कहाँ कि छेड़ करें आसमाँ से हम” .

Jigar Moradabadi

फ़ुर्सत कहाँ कि छेड़ करें आसमाँ से हम
लिपटे पड़े हैं लज़्ज़ते-दर्दे-निहाँ से हम

इस दर्ज़ा बेक़रार थे दर्दे-निहाँ से हम
कुछ दूर आगे बढ़ गए उम्रे-रवाँ से हम

ऐ चारासाज़ हालते दर्दे-निहाँ न पूछ
इक राज़ है जो कह नहीं सकते ज़बाँ से हम

बैठे ही बैठे आ गया क्या जाने क्या ख़याल
पहरों लिपट के रोए दिले-नातवाँ से हम

यादे-जानाँ भी अजब रूह-फ़ज़ा आती है – जिगर मुरादाबादी

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जिगर मुरादाबादी 20 वीं सदी के सबसे प्रसिद्ध उर्दू कवि और उर्दू गजल के प्रमुख हस्ताक्षरों में से एक हैं. उनकी एक ग़ज़ल पढ़िए – “यादे-जानाँ भी अजब रूह-फ़ज़ा आती है” .

Jigar Moradabadi

यादे-जानाँ भी अजब रूह-फ़ज़ा आती है
साँस लेता हूँ तो जन्नत की हवा आती है

मर्गे-नाकामे-मोहब्बत मेरी तक़्सीर मुआफ़
ज़ीस्त बन-बन के मेरे हक़ में क़ज़ा आती है

नहीं मालूम वो ख़ुद हैं कि मोहब्बत उनकी
पास ही से कोई बेताब सदा आती है

मैं तो इस सादगी-ए-हुस्न पे सदक़े
न जफ़ा आती है जिसको न वफ़ा आती है

हाय क्या चीज़ है ये तक्मिला-ए-हुस्नो-शबाब
अपनी सूरत से भी अब उनको हया आती है

मुद्दत में वो फिर ताज़ा मुलाक़ात का आलम – जिगर मुरादाबादी

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जिगर मुरादाबादी 20 वीं सदी के सबसे प्रसिद्ध उर्दू कवि और उर्दू गजल के प्रमुख हस्ताक्षरों में से एक हैं. उनकी एक ग़ज़ल पढ़िए – “मुद्दत में वो फिर ताज़ा मुलाक़ात का आलम” .

Jigar Moradabadi

मुद्दत में वो फिर ताज़ा मुलाक़ात का आलम
ख़ामोश अदाओं में वो जज़्बात का आलम

अल्लाह रे वो शिद्दत-ए-जज़्बात का आलम
कुछ कह के वो भूली हुई हर बात का आलम

आरिज़ से ढलकते हुए शबनम के वो क़तरे
आँखों से झलकता हुआ बरसात का आलम

वो नज़रों ही नज़रों में सवालात की दुनिया
वो आँखों ही आँखों में जवाबात का आलम

दिल में तुम हो नज़अ का हंगाम है – जिगर मुरादाबादी

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जिगर मुरादाबादी 20 वीं सदी के सबसे प्रसिद्ध उर्दू कवि और उर्दू गजल के प्रमुख हस्ताक्षरों में से एक हैं. उनकी एक ग़ज़ल पढ़िए – “दिल में तुम हो नज़अ का हंगाम है” .

Jigar Moradabadi

दिल में तुम हो नज़अ का हंगाम है
कुछ सहर का वक़्त है कुछ शाम है

इश्क़ ही ख़ुद इश्क़ का इनआम है
वाह क्या आग़ाज़ क्या अंजाम है

दर्द-ओ-ग़म दिल की तबीयत बन चुके
अब यहाँ आराम ही आराम है

पी रहा हूँ आँखों-आँखों में शराब
अब न शीशा है न कोई जाम है

इश्क़ ही ख़ुद इश्क़ का इनाम है
वाह क्या आग़ाज़ क्या अंजाम है

पीने वाले एक ही दो हों तो हों
मुफ़्त सारा मैकदा बदनाम है

कहाँ वो शोख़, मुलाक़ात ख़ुद से भी न हुई – जिगर मुरादाबादी

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जिगर मुरादाबादी 20 वीं सदी के सबसे प्रसिद्ध उर्दू कवि और उर्दू गजल के प्रमुख हस्ताक्षरों में से एक हैं. उनकी एक ग़ज़ल पढ़िए – “कहाँ वो शोख़, मुलाक़ात ख़ुद से भी न हुई “ .

Jigar Moradabadi

कहाँ वो शोख़, मुलाक़ात ख़ुद से भी न हुई
बस एक बार हुई और फिर कभी न हुई

ठहर ठहर दिल-ए-बेताब प्यार तो कर लूँ
अब इस के बाद मुलाक़ात फिर हुई न हुई

वो कुछ सही न सही फिर भी ज़ाहिद-ए-नादाँ
बड़े-बड़ों से मोहब्बत में काफ़िरी न हुई

इधर से भी है सिवा कुछ उधर की मजबूरी
कि हम ने आह तो की उन से आह भी न हुई

तेरी खुशी से अगर गम में भी खुशी न हुई – जिगर मुरादाबादी

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जिगर मुरादाबादी 20 वीं सदी के सबसे प्रसिद्ध उर्दू कवि और उर्दू गजल के प्रमुख हस्ताक्षरों में से एक हैं. उनकी एक ग़ज़ल पढ़िए – “तेरी खुशी से अगर गम में भी खुशी न हुई” .

Jigar Moradabadi

तेरी खुशी से अगर गम में भी खुशी न हुई
वो ज़िंदगी तो मुहब्बत की ज़िंदगी न हुई!

कोई बढ़े न बढ़े हम तो जान देते हैं
फिर ऐसी चश्म-ए-तवज्जोह कभी हुई न हुई!

तमाम हर्फ़-ओ-हिकायत तमाम दीदा-ओ-दिल
इस एह्तेमाम पे भी शरह-ए-आशिकी न हुई

सबा यह उन से हमारा पयाम कह देना
गए हो जब से यहां सुबह-ओ-शाम ही न हुई

इधर से भी है सिवा कुछ उधर की मजबूरी
कि हमने आह तो की उनसे आह भी न हुई

ख़्याल-ए-यार सलामत तुझे खुदा रखे
तेरे बगैर कभी घर में रोशनी न हुई

गए थे हम भी जिगर जलवा-गाह-ए-जानां में
वो पूछते ही रहे हमसे बात ही न हुई

दुनिया के सितम याद ना अपनी हि वफ़ा याद – जिगर मुरादाबादी

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जिगर मुरादाबादी 20 वीं सदी के सबसे प्रसिद्ध उर्दू कवि और उर्दू गजल के प्रमुख हस्ताक्षरों में से एक हैं. उनकी एक ग़ज़ल पढ़िए – “दुनिया के सितम याद ना अपनी हि वफ़ा याद” .

Jigar Moradabadi

दुनिया के सितम याद ना अपनी हि वफ़ा याद
अब मुझ को नहीं कुछ भी मुहब्बत के सिवा याद

मैं शिक्वाबलब था मुझे ये भी न रहा याद
शायद के मेरे भूलनेवाले ने किया याद

जब कोई हसीं होता है सर्गर्म-ए-नवाज़िश
उस वक़्त वो कुछ और भी आते हैं सिवा याद

मुद्दत हुई इक हादसा-ए-इश्क़ को लेकिन
अब तक है तेरे दिल के धड़कने की सदा याद

हाँ हाँ तुझे क्या काम मेरे शिद्दत-ए-ग़म से
हाँ हाँ नहीं मुझ को तेरे दामन की हवा याद

मैं तर्क-ए-रह-ओ-रस्म-ए-जुनूँ कर ही चुका था
क्यूँ आ गई ऐसे में तेरी लगज़िश-ए-पा याद

क्या लुत्फ़ कि मैं अपना पता आप बताऊँ
कीजे कोई भूली हुई ख़ास अपनी अदा याद