हसरत मोहानी ने अपने कलामो में हुब्बे वतनी, मुआशरते इस्लाही,कौमी एकता, मज़हबी और सियासी नजरियात पर प्रकाश डाला है. आज उनकी एक ग़ज़ल “अड़” पढ़िए.
तोड़ कर अहद-ए-क़रम न-आशना हो जाइए
बंदा परवर जाइए अच्छा ख़फा हो जाइए
राह में मिलिए कभी मुझ से तो अज़ारा-ए-सितम
होंठ अपने काट कर फ़ौरन जुदा हो जाइए
जी में आता है के उस शोख़-ए-तघाफुल केश से
अब न मिलिए फिर कभी और बेवफा हो जाइए
हाए रे बे-इख्तियारी ये तो सब कुछ हो मगर
उस सरापा नाज़ से क्यूँ कर ख़फा हो जाइए