हसरत मोहानी ने अपने कलामो में हुब्बे वतनी, मुआशरते इस्लाही,कौमी एकता, मज़हबी और सियासी नजरियात पर प्रकाश डाला है. आज उनकी एक ग़ज़ल “घिर के आख़िर आज बरसी है घटा बरसात की” पढ़िए.
घिर के आख़िर आज बरसी है घटा बरसात की
मैकदों में कब से होती थी दुआ बरसात की
मूजब-ए-सोज़-ओ- सुरूर-ओ-बायस-ए-ऐश-ओ-निशात
ताज़गी बख़्श-ए-दिल-ओ-जाँ है हवा बरसात की
शाम-ए-सर्मा दिलरुबा था, सुबह-ए-गर्मा ख़ुशनुमा
दिलरुबा तर, खुशनुमा तर है फ़ज़ा बरसात की
गर्मी-ओ-सर्दी के मिट जाते हैं सब जिससे मर्ज़
लाल लाल एक ऐसी निकली है दवा बरसात की
सुर्ख़ पोशिश पर है ज़र्द-ओ-सब्ज़ बूटों की बहार
क्यों न हों रंगीनियाँ तुझपर फ़िदा बरसात की
देखने वाले हुए जाते हैं पामाल-ए-हवस
देखकर छब तेरी ऐ रंगीं अदा बरसात की