मस्ती के फिर आ गये ज़माने – हसरत मोहानी

हसरत मोहानी ने अपने कलामो में हुब्बे वतनी, मुआशरते इस्लाही,कौमी एकता, मज़हबी और सियासी नजरियात पर प्रकाश डाला है. आज उनकी एक ग़ज़ल “अड़” पढ़िए.

Hasrat Mohani

मस्ती के फिर आ गये ज़माने
आबाद हुए शराबख़ाने

हर फूल चमन में ज़र-ब-कफ़ है
बाँटे हैं बहार ने ख़ज़ाने

सब हँस पड़े खिलखिला के ग़ुंचे
छेड़ा जो लतीफ़ा सबा ने

सरसब्ज़ हुआ निहाले-ग़म भी
पैदा वो असर किया हवा ने

रिन्दों ने पिछाड़कर पिला दी
वाइज़ के न चल सके बहाने

कर दूँगा मैं हर वली को मयख़्वार
तौफ़ीक़ जो दी मुझे ख़ुदा ने

हमने तो निसार कर दिया दिल
अब जाने वो शोख़, या न जाने

बेग़ाना-ए-मय किया है मुझको
साक़ी की निगाहे -आश्ना ने

मसकन है क़फ़स में बुलबुलों का
वीराँ पड़े हैं आशियाने

अब काहे को आएँगे वो ‘हसरत’
आग़ाज़े-जुनूँ के फिर ज़माने