देखना भी तो उन्हें दूर से देखा करना – हसरत मोहानी

हसरत मोहानी ने अपने कलामो में हुब्बे वतनी, मुआशरते इस्लाही,कौमी एकता, मज़हबी और सियासी नजरियात पर प्रकाश डाला है. आज उनकी एक ग़ज़ल “देखना भी तो उन्हें दूर से देखा करना” पढ़िए.

Hasrat Mohani

देखना भी तो उन्हें दूर से देखा करना
शेवा-ए-इश्क़ नहीं हुस्न को रुसवा करना

इक नज़र ही तेरी काफ़ी थी कि आई राहत-ए-जान
कुछ भी दुश्वार न था मुझ को शकेबा करना

उन को यहाँ वादे पे आ लेने दे ऐ अब्र-ए-बहार
जिस तरह चाहना फिर बाद में बरसा करना

शाम हो या कि सहर याद उन्हीं की रख ले
दिन हो या रात हमें ज़िक्र उन्हीं का करना

कुछ समझ में नहीं आता कि ये क्या है ‘हसरत’
उन से मिलकर भी न इज़हार-ए-तमन्ना करना