दीवानगी से दोश पे ज़ुन्नार भी नहीं – मिर्ज़ा ग़ालिब

Presenting the ghazal “Diwangi Se Dosh Pe Zunnar”, written by the Urdu Poet Mirza Ghalib.

Mirza Ghalib Shayari - Urdu Shayari Ghazal and Sher of Ghalib

दीवानगी से दोश पे ज़ुन्नार भी नहीं

दीवानगी से दोश पे ज़ुन्नार भी नहीं
या’नी हमारे जेब में इक तार भी नहीं

दिल को नियाज़-ए-हसरत-ए-दीदार कर चुके
देखा तो हम में ताक़त-ए-दीदार भी नहीं

मिलना तिरा अगर नहीं आसाँ तो सहल है
दुश्वार तो यही है कि दुश्वार भी नहीं

बे-इश्क़ उम्र कट नहीं सकती है और याँ
ताक़त ब-क़दर-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार भी नहीं

शोरीदगी के हाथ से है सर वबाल-ए-दोश
सहरा में ख़ुदा कोई दीवार भी नहीं

गुंजाइश-ए-अदावत-ए-अग़्यार यक तरफ़
याँ दिल में ज़ोफ़ से हवस-ए-यार भी नहीं

डर नाला-हा-ए-ज़ार से मेरे ख़ुदा को मान
आख़िर नवा-ए-मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार भी नहीं

दिल में है यार की सफ़-ए-मिज़्गाँ से रू-कशी
हालाँकि ताक़त-ए-ख़लिश-ए-ख़ार भी नहीं

इस सादगी पे कौन मर जाए ख़ुदा
लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं

देखा ‘असद’ को ख़ल्वत-ओ-जल्वत में बार-हा
दीवाना गर नहीं है तो हुश्यार भी नहीं