ये किस ख़लिश ने फिर इस दिल में आशियाना किया – फैज़ अहमद फैज़

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ भारतीय उपमहाद्वीप के एक विख्यात पंजाबी शायर थे. वे उर्दू शायरी के सबसे बड़े नाम में गिने जाते हैं. उनकी एक ग़ज़ल सुनिए – ये किस ख़लिश ने फिर इस दिल में आशियाना किया

Faiz ahmad Faiz album Shaam e shehr e yaaran

ये किस ख़लिश ने फिर इस दिल में आशियाना किया

ये किस ख़लिश ने फिर इस दिल में आशियाना किया
फिर आज किस ने सुख़न हम से ग़ायेबाना किया

ग़म-ए-जहाँ हो, रुख़-ए-यार हो के दस्त-ए-उदू
सुलूक जिस से किया हमने आशिक़ाना किया

थे ख़ाक-ए-राह भी हम लोग क़हर-ए-तूफ़ाँ भी
सहा तो क्या न सहा और किया तो क्या न किया

ख़ुशा के आज हर इक मुद्दई के लब पर है
वो राज़ जिस ने हमें राँदा-ए-ज़माना किया

वो हीलागर जो वफ़ाजू भी है जफ़ाख़ू भी
किया भी ‘फैज़’ तो किस बुत से दोस्ताना किया

अर्थ 

ख़लिश = चुभन, वेदना
सुख़न = बात-चीत, संवाद, वचन
ग़ायेबाना = पीठ पीछे, अनुपस्थिति में
ग़म-ए-जहाँ = दुनिया के दुःख
दस्त-ए-उदू = दुश्मन का हाथ
सुलूक = व्यवहार
ख़ाक-ए-राह = रास्ते की धूल
क़हर-ए-तूफ़ाँ = तूफ़ान का क़हर/ क्रोध/कोप
ख़ुशा = अहो, क्या ख़ूब, वाह वाह
मुद्दई = दावा करने वाला, वादी
लब = होंठ
राँदा = निकाला हुआ, त्यक्त, बहिष्कृत
राँदा-ए-ज़माना = दुनिया/ समाज से बहिष्कृत
हीलागर = चालाक, फ़रेबी, बहानेबाज़
वफ़ाजू = वफ़ा करने वाला
जफ़ाख़ू = स्वाभाव से विश्वासघाती, आदतन बेवफ़ा