अहमद नदीम क़ासमी एक तरक़्क़ी-पसंद शायर के रूप में जाने जाते हैं. महफ़िल पर पढ़िए उनकी एक बेहतरीन ग़ज़ल जिसका शीर्षक है -तुझे इज़हार-ए-मुहब्बत
तुझे इज़हार-ए-मुहब्बत से अगर नफ़रत है
तूने होठों के लरज़ने को तो रोका होता
बे-नियाज़ी से, मगर कांपती आवाज़ के साथ
तूने घबरा के मिरा नाम न पूछा होता
तेरे बस में थी अगर मशाल-ए-जज़्बात की लौ
तेरे रुख्सार में गुलज़ार न भड़का होता
यूं तो मुझसे हुई सिर्फ़ आब-ओ-हवा की बातें
अपने टूटे हुए फ़िरक़ों को तो परखा होता
यूं ही बेवजह ठिठकने की ज़रूरत क्या थी
दम-ए-रुख्सत में अगर याद न आया होता