Read this beautiful ghazal by Sheikh Ibrahim Zauq – “Aaj unse muddaii kuchh muddaa kahane ko hai”. आख़िरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के उस्ताद और राजकवि शेख़ इब्राहीम ज़ौक़ की एक ग़ज़ल “आज उनसे मुद्दई कुछ मुद्दा कहने को है” पढ़िए.
आज उनसे मुद्दई कुछ मुद्दआ कहने को है
आज उनसे मुद्दई कुछ मुद्दआ कहने को है
यह नहीं मालूम क्या कहवेंगे क्या कहने को है
देखे आईने बहुत, बिन ख़ाक़ हैं नासाफ़ सब
हैं कहाँ अहले-सफ़ा, अहले-सफ़ा कहने को हैं
दम-बदम रूक-रुक के है मुँह से निकल पड़ती ज़बाँ
वस्फ़ उसका कह चुके फ़व्वारे या कहने को है
देख ले तू पहुँचे किस आलम से किस आलम में है
नालाहाए-दिल हमारे कहने को है
बेसबब सूफ़ार उनके मुँह नहीं खोंलें है ‘ज़ौक़’
आये पैके-मर्ग पैग़ामे-क़ज़ा कहने को है
अर्थ : | नालाहाए-दिल – दिल का रोना नारसा – लक्ष्य तक न पहुँचने वाले बेसबब सूफ़ार – तीर का मुँह आये पैके-मर्ग – मृत्यु का दूत |
Aaj unse muddaii kuchh muddaa kahane ko hai
Aaj unse muddaii kuchh muddaa kahane ko hai
Ye nahii maaloom kyaa kahavenge kya kahane ko hai
Dekhe aaine bahut, bin khaak hain naasaaf sab
Hain kahaan ahale-safaa, ahale-safaa kahane ko hain
Dam-badam rook-ruk ke hai munh se nikal paDtii jbaan
Vasf usakaa kah chuke fvvaare yaa kahane ko hai
Dekh le too pahunche kis aalam se kis aalam men hai
Naalaahaae-dil hamaare naarasaa kahane ko hai
Besabab soofaar unake munh nahiin khonlen hai ‘zauq’
Aaye paike-marg paigaame-kjaa kahane ko hai