दफ़्न जब ख़ाक में हम सोख़्ता-सामाँ होंगे – मोमिन ख़ाँ मोमिन

मोमिन ख़ाँ मोमिन एक मशहूर उर्दू कवि थे. इनकी शायरी में मुहब्बत, और रंगीन मिजाजी का असर दीखता है. प्रस्तुत है उनकी एक ग़ज़ल “दफ़्न जब ख़ाक में हम सोख़्ता-सामाँ होंगे”

Momin Khan Momin

दफ़्न जब ख़ाक में हम सोख़्ता-सामाँ होंगे

दफ़्न जब ख़ाक में हम सोख़्ता-सामाँ होंगे
फ़िल्स माही के गुल-ए-शम-ए-शबिस्ताँ होंगे

नावक-अंदाज़ जिधर दीदा-ए-जानाँ होंगे
नीम-बिस्मिल कई होंगे कई बे-जाँ होंगे

ताब-ए-नज़्ज़ारा नहीं आइना क्या देखने दूँ
और बन जाएँगे तस्वीर जो हैराँ होंगे

तू कहाँ जाएगी कुछ अपना ठिकाना कर ले
हम तो कल ख़्वाब-ए-अदम में शब-ए-हिज्राँ होंगे

नासेहा दिल में तू इतना तो समझ अपने कि हम
लाख नादाँ हुए क्या तुझ से भी नादाँ होंगे

कर के ज़ख़्मी मुझे नादिम हों ये मुमकिन ही नहीं
गर वो होंगे भी तो बे-वक़्त पशेमाँ होंगे

एक हम हैं कि हुए ऐसे पशेमान कि बस
एक वो हैं कि जिन्हें चाह के अरमाँ होंगे

हम निकालेंगे सुन ऐ मौज-ए-हवा बल तेरा
उस की ज़ुल्फ़ों के अगर बाल परेशाँ होंगे

सब्र या रब मिरी वहशत का पड़ेगा कि नहीं
चारा-फ़रमा भी कभी क़ैदी-ए-ज़िंदाँ होंगे

मिन्नत-ए-हज़रत-ए-ईसा न उठाएँगे कभी
ज़िंदगी के लिए शर्मिंदा-ए-एहसाँ होंगे

तेरे दिल-तफ़्ता की तुर्बत पे अदू झूटा है
गुल न होंगे शरर-ए-आतिश-ए-सोज़ाँ होंगे

ग़ौर से देखते हैं तौफ़ को आहु-ए-हरम
क्या कहें उस के सग-ए-कूचा के क़ुर्बां होंगे

दाग़-ए-दिल निकलेंगे तुर्बत से मिरी जूँ लाला
ये वो अख़गर नहीं जो ख़ाक में पिन्हाँ होंगे

चाक पर्दे से ये ग़म्ज़े हैं तो ऐ पर्दा-नशीं
एक मैं क्या कि सभी चाक-ए-गरेबाँ होंगे

फिर बहार आई वही दश्त-नवर्दी होगी
फिर वही पाँव वही ख़ार-ए-मुग़ीलाँ होंगे

संग और हाथ वही वो ही सर ओ दाग़-ए-जुनून
वो ही हम होंगे वही दश्त ओ बयाबाँ होंगे

उम्र सारी तो कटी इश्क़-ए-बुताँ में ‘मोमिन’
आख़िरी वक़्त में क्या ख़ाक मुसलमाँ होंगे