न हुई गर मिरे मरने से तसल्ली न सही – मिर्ज़ा ग़ालिब

Presenting the ghazal “Na Hui Gar Mire Marne Se Tasalli”, written by the Urdu Poet Mirza Ghalib.

Mirza Ghalib Shayari - Urdu Shayari Ghazal and Sher of Ghalib

न हुई गर मिरे मरने से तसल्ली न सही

न हुई गर मिरे मरने से तसल्ली न सही
इम्तिहाँ और भी बाक़ी हो तो ये भी न सही

ख़ार ख़ार-ए-अलम-ए-हसरत-ए-दीदार तो है
शौक़ गुल-चीन-ए-गुलिस्तान-ए-तसल्ली न सही

मय-परस्ताँ ख़ुम-ए-मय मुँह से लगाए ही बने
एक दिन गर न हुआ बज़्म में साक़ी न सही

नफ़स-ए-क़ैस कि है चश्म-ओ-चराग़-ए-सहरा
गर नहीं शम-ए-सियह-ख़ाना-ए-लैली न सही

एक हंगामे पे मौक़ूफ़ है घर की रौनक़
नौहा-ए-ग़म ही सही नग़्मा-ए-शादी न सही

न सताइश की तमन्ना न सिले की पर्वा
गर नहीं हैं मिरे अशआ’र में मा’नी न सही

इशरत-ए-सोहबत-ए-ख़ूबाँ ही ग़नीमत समझो
न हुई ‘ग़ालिब’ अगर उम्र-ए-तबीई न सही