फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ भारतीय उपमहाद्वीप के एक विख्यात पंजाबी शायर थे. वे उर्दू शायरी के सबसे बड़े नाम में गिने जाते हैं. उनकी एक ग़ज़ल सुनिए – न अब रकीब न नासेह न ग़मगुसार कोई
न अब रकीब न नासेह न ग़मगुसार कोई
न अब रकीब न नासेह न ग़मगुसार कोई
तुम आशना थे तो थीं आशनाईयां क्या-क्या
जुदा थे हम तो मुयस्सर थीं कुरबतें कितनी
बहम हुए तो पड़ी हैं जुदाईयां क्या-क्या
पहुंच के दर पर तिरे कितने मो’तबर ठहरे
अगरचे रह में हुईं जगहंसाईयां क्या-क्या
हम-ऐसे सादा-दिलों की नियाज़मन्दी से
बुतों ने की हैं जहां में बुराईयां क्या-क्या
सितम पे ख़ुश कभी लुतफ़ो-करम से रंजीदा
सिखाईं तुमने हमें कजअदाईयां क्या-क्या
नासेह=प्रचारक
कुरबत=नज़दीकी
बहम= इकठ्ठा
मो’तबर=भरोसेयोग
नियाज़मन्दी= प्रेम भक्ति
कजअदाई=बाँकी अदा
This ghazal is from the Faiz Ahmad Faiz album’s Shaam-e-Shehr-e-Yaaran. Faiz Ahmad Faiz has recited his ghazal in his own voice. Listen to the audio on these streaming platforms –