हसरत मोहानी ने अपने कलामो में हुब्बे वतनी, मुआशरते इस्लाही,कौमी एकता, मज़हबी और सियासी नजरियात पर प्रकाश डाला है. आज उनकी एक ग़ज़ल “अड़” पढ़िए.
हुस्ने-बेपरवा को ख़ुदबीन ओ ख़ुदारा कर दिया
क्या किया मैंने कि इज़हारे-तमन्ना कर दिया
बढ़ गयीं तुम से तो मिल कर और भी बेताबियाँ
हम ये समझे थे कि अब दिल को शकेबा कर दिया
पढ़ के तेरा ख़त मेरे दिल की अजब हालत हुई
इज़्तराब-ए-शौक़ ने इक हश्र बरपा कर दिया
हम रहे याँ तक तेरी ख़िदमत में सरगर्मो-नियाज़
तुझको आख़िर आश्ना-ए-नाज़-ए-बेजा कर दिया
अब नहीं दिल को किसी सूरत, किसी पहलू क़रार
इस निगाहे-नाज़ ने क्या सिह्र ऐसा कर दिया
इश्क़ से तेरे बढ़े क्या-क्या दिलों के मर्तबे
मेह्र ज़र्रों को किया क़तरों को दरिया कर दिया
तेरी महफ़िल से उठाता ग़ैर मुझको क्या मजाल
देखता था मैं कि तूने भी इशारा कर दिया
सब ग़लत कहते थे लुत्फ़े-यार को वजहे-सकून
दर्दे-दिल इसने तो ‘हसरत’ और दूना कर दिया
ख़ुदारा = हे भगवान
ख़ुदबीन = स्वयं के प्रति सचेत
शकेबा = शान्त
सरगर्मो-नियाज़ = व्यस्त
आश्ना-ए-नाज़-ए-बेजा = झूठे घमण्ड की भावना से भर दिया