इज़्न-ए-ख़िराम लेते हुए आसमाँ से हम – मजाज़

असरारुल हक़ मजाज़ उर्दू के प्रगतिशील विचारधारा से जुड़े रोमानी शायर के रूप में प्रसिद्ध रहे हैं. उनकी एक ग़ज़ल पढ़िए “इज़्न-ए-ख़िराम लेते हुए आसमाँ से हम”.

Majaz Lakhnawi

इज़्न-ए-ख़िराम लेते हुए आसमाँ से हम
हट कर चले हैं रहगुज़र-ए-कारवाँ से हम

क्या पूछते हो झूमते आए कहाँ से हम
पी कर उठे हैं ख़ुम-कदा-ए-आसमाँ से हम

क्यूँकर हुआ है फ़ाश ज़माने पे क्या कहें
वो राज़-ए-दिल जो कह न सके राज़-दाँ से हम

हमदम यही है रहगुज़र-ए-यार-ए-ख़ुश-ख़िराम
गुज़रे हैं लाख बार इसी कहकशाँ से हम

क्या क्या हुआ है हम से जुनूँ में न पूछिए
उलझे कभी ज़मीं से कभी आसमाँ से हम

हर नर्गिस-ए-जमील ने मख़मूर कर दिया
पी कर उठे शराब हर इक बोस्ताँ से हम

ठुकरा दिए हैं अक़्ल ओ ख़िरद के सनम-कदे
घबरा चुके थे कशमकश-ए-इम्तिहाँ से हम

देखेंगे हम भी कौन है सज्दा तराज़-ए-शौक़
ले सर उठा रहे हैं तिरे आस्ताँ से हम

बख़्शी हैं हम को इश्क़ ने वो जुरअतें ‘मजाज़’
डरते नहीं सियासत-ए-अहल-ए-जहाँ से हम