नज़ीर अकबराबादी भारतीय शायर थे जिन्हें “नज़्म का पिता” कहा जाता है. आज महफ़िल में सुनिए उनकी एक खूबसूरत ग़ज़ल जिसका शीर्षक है “फ़क़ीरों की सदा”.
बटमार अजल का आ पहुँचा, टक उसको देख डरो बाबा
अब अश्क बहाओ आँखों से और आहें सर्द भरो बाबा
दिल, हाथ उठा इस जीने से, ले बस मन मार, मरो बाबा
जब बाप की ख़ातिर रोए थे, अब अपनी ख़ातिर रो बाबा
तन सूखा, कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा
अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा
ये अस्प बहुत उछला-कूदा अब कोड़ा मारो, ज़ेर करो
जब माल इकट्ठा करते थे, अब तन का अपने ढेर करो
गढ़ टूटा, लशकर भाग चुका, अब म्यान में तुम शमशेर करो
तुम साफ़ लड़ाई हार चुके, अब भागने में मत देर करो
तन सूखा, कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा
अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा
यह उम्र जिसे तुम समझे हो, यह हरदम तन को चुनती है
जिस लकड़ी के बल बैठे हो, दिन-रात यह लकड़ी घुनती है
तुम गठरी बांधो कपड़े की, और देख अजल सर धुनती है
अब मौत कफ़न के कपड़े का याँ ताना-बाना बुनती है
तन सूखा, कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा
अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा
घर बार, रुपए और पैसे में मत दिल को तुम ख़ुरसन्द करो
या गोर बनाओ जंगल में, या जमुना पर आनन्द करो
मौत आन लताड़ेगी आख़िर कुछ मक्र करो, कुछ फ़न्द करो
बस ख़ूब तमाशा देख चुके, अब आँखें अपनी बन्द करो
तन सूखा, कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा
अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा
व्यापार तो याँ का बहुत किया, अब वहाँ का भी कुछ सौदा लो
जो खेप उधर को चढ़ती है, उस खेप को याँ से लदवा लो
उस राह में जो कुछ खाते हैं, उस खाने को भी मंगवा लो
सब साथी मंज़िल पर पहुँचे, अब तुम भी अपना रस्ता लो
तन सूखा, कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा
अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा
कुछ देर नहीं अब चलने में, क्या आज चलो या कल निकलो
कुछ कपड़ा-लत्ता लेना हो, सो जल्दी बांध संभल निकलो
अब शाम नहीं, अब सुब्ह हुई जूँ मोम पिघल कर ढल निकलो
क्यों नाहक धूप चढ़ाते हो, बस ठंडे-ठंडे चल निकलो
तन सूखा, कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा
अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा