दूर से आये थे साक़ी – नज़ीर अकबराबादी

नज़ीर अकबराबादी भारतीय शायर थे जिन्हें “नज़्म का पिता” कहा जाता है. आज महफ़िल में सुनिए उनकी एक खूबसूरत ग़ज़ल जिसका शीर्षक है “दूर से आये थे साक़ी “.

Nazeer Akbarabaadi

दूर से आये थे साक़ी सुनके मयख़ाने को हम ।

बस तरसते ही चले अफ़सोस पैमाने को हम ।।

मय भी है, मीना भी है, साग़र भी है साक़ी नहीं।

दिल में आता है लगा दें, आग मयख़ाने को हम।।

हमको फँसना था क़फ़ज़ में, क्या गिला सय्याद का।

बस तरसते ही रहे हैं, आब और दाने को हम।।

बाग में लगता नहीं सहरा में घबराता है दिल।

अब कहाँ ले जाके बेठाऐं ऐसे दीवाने को हम।।

ताक-ए-आबरू में सनम के क्या ख़ुदाई रह गई।

अब तो पूजेंगे उसी क़ाफ़िर के बुतख़ाने को हम।।

क्या हुई तक़्सीर हम से, तू बता दे ए ‘नज़ीर’

ताकि शादी मर्ग समझें, ऐसे मर जाने को हम।।

दूर से आये थे साक़ी सुनके मयख़ाने को हम ।

बस तरसते ही चले अफ़सोस पैमाने को हम ।।

मय भी है, मीना भी है, साग़र भी है साक़ी नहीं।

दिल में आता है लगा दें, आग मयख़ाने को हम।।

हमको फँसना था क़फ़ज़ में, क्या गिला सय्याद का।

बस तरसते ही रहे हैं, आब और दाने को हम।।

बाग में लगता नहीं सहरा में घबराता है दिल।

अब कहाँ ले जाके बेठाऐं ऐसे दीवाने को हम।।

ताक-ए-आबरू में सनम के क्या ख़ुदाई रह गई।

अब तो पूजेंगे उसी क़ाफ़िर के बुतख़ाने को हम।।

क्या हुई तक़्सीर हम से, तू बता दे ए ‘नज़ीर’

ताकि शादी मर्ग समझें, ऐसे मर जाने को हम।।