अच्छा था अगर ज़ख्म न भरते कोई दिन और – अहमद फ़राज़

अहमद फ़राज़ आधुनिक उर्दू के सर्वश्रेष्ठ शायरों में से हैं. उनकी शायरी दर्द और मोहब्बत की शायरी है. पेश है फ़राज़ की एक बेहतरीन ग़ज़ल “अच्छा था अगर ज़ख्म न भरते कोई दिन और“.

Ahmad faraz

अच्छा था अगर ज़ख्म न भरते कोई दिन और
उस कू-ए-मलामत में गुजरते कोई दिन और

रातों के तेरी यादों के खुर्शीद उभरते
आँखों में सितारे से उभरते कोई दिन और

हमने तुझे देखा तो किसी और को ना देखा
ए काश तेरे बाद गुजरते कोई दिन और

राहत थी बहुत रंज में हम गमतलबों को
तुम और बिगड़ते तो संवरते कोई दिन और

गो तर्के-तअल्लुक था मगर जाँ पे बनी थी
मरते जो तुझे याद ना करते कोई दिन और

उस शहरे-तमन्ना से फ़राज़ आये ही क्यों थे
ये हाल अगर था तो ठहरते कोई दिन और

कू-ए-मलामत – ऐसी गली, जहाँ व्यंग्य किया जाता हो
खुर्शीद – सूर्य, रंज – तकलीफ़, गमतलब- दुख पसन्द करने वाले
तर्के-तअल्लुक – रिश्ता टूटना( यहाँ संवाद हीनता से मतलब है)