परवीन शाकिर उर्दू शायरी में एक युग का प्रतिनिधित्व करती हैं. यहाँ प्रस्तुत है उनकी एक खूबसूरत ग़ज़ल “वह बाग़ में मेरा मुंतज़िर था”.
वह बाग़ में मेरा मुंतज़िर था
वह बाग़ में मेरा मुंतज़िर था
और चांद तुलूअ हो रहा था
ज़ुल्फ़े-शबे-वस्ल खुल रही थी
ख़ुशबू साँसों में घुल रही थी
आई थी मैं अपने पी से मिलने
जैसे कोई गुल हवा में खिलने
इक उम्र के बाद हँसी थी
ख़ुद पर कितनी तवज्जः दी थी
पहना गहरा बसंती जोड़ा
और इत्र-ए-सुहाग में बसाया
आइने में ख़ुद को फिर कई बार
उसकी नज़रों से मैंने देखा
संदल से चमक रहा था माथा
चंदन से बदन दमक रहा था
होंठों पर बहुत शरीर लाली
गालों पे गुलाल खेलता था
बालों में पिरोए इतने मोती
तारों का गुमान हो रहा था
अफ़्शाँ की लकीर माँग में थी
काजल आँखों में हँस रहा था
कानों में मचल रही थी बाली
बाहों में लिपट रहा था गजरा
और सारे बदन से फूटता था
उसके लिए गीत जो लिखा था
हाथों में लिए दिये की थाली
उसके क़दमों में जाके बैठी
आई थी कि आरती उतारूँ
सारे जीवन को दान कर दूँ
देखा मेरे देवता ने मुझको
बाद इसके ज़रा-सा मुस्कराया
फिर मेरे सुनहरे थाल पर हाथ
रखा भी तो इक दिया उठाया
और मेरी तमाम ज़िन्दगी से
माँगी भी तो इक शाम माँगी