उड़ी जो गर्द तो इस ख़ाक-दाँ को पहचाना – वज़ीर आग़ा

The ghazal “Udi Jo Gard To Is Khak-Dan Ko Pahchana” by the urdu poet Wazir Agha. वज़ीर आग़ा एक बेहद प्रसिद्ध और विशिष्ट शायर हैं. सुनिए उनकी ग़ज़ल “उड़ी जो गर्द तो इस ख़ाक-दाँ को पहचाना”.

Wazir Aagha

उड़ी जो गर्द तो इस ख़ाक-दाँ को पहचाना

उड़ी जो गर्द तो इस ख़ाक-दाँ को पहचाना
और उस के बाद दिल-ए-बे-निशाँ को पहचाना

जला जो रिज़्क़ तो हम आसमाँ को जान गए
लगी जो प्यास तो तीर ओ कमाँ को पहचाना

चलो ये आँख का जल-थल तो तुम ने देख लिया
मगर ये क्या कि न अब्र-ए-रवाँ को पहचाना

बहार आई तो हर-सू थीं कतरनें उस की
बहार आई तो हम ने ख़िज़ाँ को पहचाना

ख़ुद अपने ग़म ही से की पहले दोस्ती हम ने
और उस के बाद ग़म-ए-दोस्ताँ को पहचाना

सफ़र तवील सही हासिल-ए-सफ़र ये है
वहाँ को भूल गए और यहाँ को पहचाना

ज़मीं से हाथ छुड़ाया तो फ़ासले जागे
मगर न हम ने कराँ-ता-कराँ को पहचाना

अजब तरह से गुज़ारी है ज़िंदगी हम ने
जहाँ में रह के न कार-ए-जहाँ को पहचाना

Udi Jo Gard To Is Khak-Dan Ko Pahchana 

Udi jo gard to is ḳhak-dan ko pahchana
Aur us ke ba.ad dil-e-be-nishan ko pahchana

Jala jo rizq to ham asman ko jaan gae
Lagi jo pyaas to tiir o kaman ko pahchana

Chalo ye aankh ka jal-thal to tum ne dekh liya
Magar ye kya ki na abr-e-ravan ko pahchana

Bahar aai to har-su thiin katranen us ki
Bahar aai to ham ne ḳhizan ko pahchana

Khud apne ġham hi se ki pahle dosti ham ne
Aur us ke baad ġham-e-dostan ko pahchana

Safar tavil sahi hasil-e-safar ye hai
Vahan ko bhuul ga.e aur yahan ko pahchana

Zameen se haath chhudaya to fasle jaage
Magar na ham ne karan-ta-karan ko pahchana

Ajab tarah se guzari hai zindagi ham ne
Jahan men rah ke na kar-e-jahan ko pahchana