आख़िरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के उस्ताद और राजकवि शेख़ इब्राहीम ज़ौक़ की एक ग़ज़ल “तेरे आफ़त-ज़दा जिन दश्तों में अड़ जाते हैं” पढ़िए.
तेरे आफ़त-ज़दा जिन दश्तों में अड़ जाते हैं
सब्र ओ ताक़त के वहाँ पाँव उखड़ जाते हैं
इतने बिगड़े हैं वो मुझ से के अगर नाम उन के
ख़त भी लिखता हूँ तो सब हर्फ़ बिगड़ जाते हैं
क्यूँ न लड़वाएँ उन्हें ग़ैर के करते हैं यही
हम-नशीं जिन के नसीबे कहीं लड़ जाते हैं