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तेरा बीमार न सँभला जो सँभाला लेकर – ज़ौक़

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आख़िरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के उस्ताद और राजकवि शेख़ इब्राहीम ज़ौक़ की एक ग़ज़ल “तेरा बीमार न सँभला जो सँभाला लेकर” पढ़िए.

Zauq

तेरा बीमार न सँभला जो सँभाला लेकर
चुपके ही बैठे रहे दम को मसीहा लेकर

शर्ते-हिम्मत नहीं मुज़रिम हो गिरफ्तारे-अज़ाब
तूने क्या छोड़ा अगर छोड़ेगा बदला लेकर

मुझसा मुश्ताक़े-जमाल एक न पाओगे कहीं
गर्चे ढूँढ़ोगे चिराग़े-रुखे-ज़ेबा लेकर

तेरे क़दमों में ही रह जायेंगे, जायेंगे कहाँ
दश्त में मेरे क़दम आबलाए-पा लेकर

वाँ से याँ आये थे ऐ ‘ज़ौक़’ तो क्या लाये थे
याँ से तो जायेंगे हम लाख तमन्ना लेकर

निगाह का वार था दिल पर फड़कने जान लगी – ज़ौक़

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आख़िरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के उस्ताद और राजकवि शेख़ इब्राहीम ज़ौक़ की एक ग़ज़ल “कौन वक़्त ऐ वाए गुज़रा जी को घबराते हुए” पढ़िए.

Zauq

निगाह का वार था दिल पर फड़कने जान लगी
चली थी बरछी किसी पर किसी के आन लगी

किसी के दिल का सुनो हाल दिल लगाकर तुम
जो होवे दिल को तुम्हारे भी मेहरबान लगी

तू वह हलाले जबीं है की तारे बन बनकर
रहे हैं तेरी तरफ चश्म इक जहान लगी

उदारी हिर्स ने आकर जहान में सबकी ख़ाक
नहीं है किसको हवा ज़ेरे-आसमान लगी

किसी की काविशे-मिज़गां से आज सारी रात
नहीं पलक से पलक मेरी एक आन लगी

तबाह बहरे-जहां में थी अपनी कश्ती-ए-उम्र
सो टूट-फूट के बारे किनारे आन लगी |

लेते ही दिल जो आशिक़-ए-दिल-सोज़ का चले – ज़ौक़

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आख़िरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के उस्ताद और राजकवि शेख़ इब्राहीम ज़ौक़ की एक ग़ज़ल “लेते ही दिल जो आशिक़-ए-दिल-सोज़ का चले” पढ़िए.

Zauq

लेते ही दिल जो आशिक़-ए-दिल-सोज़ का चले
तुम आग लेने आए थे क्या आए क्या चले

तुम चश्म-ए-सुरमगीं को जो अपनी दिखा चले
बैठे बिठाए ख़ाक में हम को मिला चले

दीवाना आ के और भी दिल को बना चले
इक दम तो ठहरो और भी क्या आए क्या चले

हम लुत्फ़-ए-सैर-ए-बाग़-ए-जहाँ ख़ाक उड़ा चले
शौक़-ए-विसाल दिल में लिए यार का चले

ग़ैरों के साथ छोड़ के तुम नक़्श-ए-पा चले
क्या ख़ूब फूल गोर पे मेरी चढ़ा चले

दिखला के मुझ को नर्गिस-ए-बीमार क्या चले
आवारा मिस्ल-ए-आहु-ए-सहरा बना चले

ऐ ग़म मुझे तमाम शब-ए-हिज्र में न खा
रहने दे कुछ के सुब्ह का भी नाश्ता चले

बल-बे-ग़ुरूर-ए-हुस्न ज़मीं पर न रक्खे पाँव
मानिंद-ए-आफ़ताब वो बे-नक़्श-ए-पा चले

क्या ले चले गली से तेरी हम को जूँ नसीम
आए थे सर पे ख़ाक उड़ाने उड़ा चले

अफ़सोस है के साया-ए-मुर्ग़-ए-हवा की तरह
हम जिस के साथ साथ चलें वो जुदा चले

क्या देखता है हाथ मेरा छोड़ दे तबीब
याँ जान ही बदन में नहीं नब्ज़ क्या चले

क़ातिल जो तेरे दिल में रुकावट न हो तो क्यूँ
रुक रुक के मेरे हलक़ पे ख़ंजर तेरा चले

ले जाएँ तेरे कुश्ते को जन्नत में भी अगर
फिर फिर के तेरे घर की तरफ़ देखता चले

आलूदा चश्म में न हुई सुरमे से निगाह
देखा जहाँ से साफ़ ही अहल-ए-सफ़ा चले

रोज़-ए-अज़ल से ज़ुल्फ़-ए-मोअम्बर का है असीर
क्या उड़ के तुझ से ताएर-ए-निकहत भला चले

साथ अपने ले के तौसन-ए-उम्र-ए-रवाँ को आह
हम इस सारा-ए-दहर में क्या आए क्या चले

सुलझाईं ज़ुल्फ़ें क्या लब-ए-दरया पे आप ने
हर मौज मिस्ल-ए-मार-सियह तुम बना चले

दुनिया में जब से आए रहा इश्क़-ए-गुल-रुख़ाँ
हम इस जहाँ में मिस्ल-ए-सबा ख़ाक उड़ा चले

क़ातिल से दख़ल क्या है के जाँ-बर हो अपना होश
गर उड़ के मिस्ल-ए-ताएर रंग-ए-हिना चले

फ़िक्र-ए-क़नाअत उन को मयस्सर हुई कहाँ
दुनिया से दिल में ले के जो हिर्स ओ हवा चले

इस रू-ए-आतिशीं के तसव्वुर में याद-ए-ज़ुल्फ़
यानी ग़ज़ब है आग लगे और हवा चले

ऐ ‘ज़ौक़’ है ग़ज़ब निगह-ए-यार अल-हफ़ीज़
वो क्या बचे के जिस पे ये तीर-ए-क़ज़ा चले

तेरे आफ़त-ज़दा जिन दश्तों में अड़ जाते हैं – ज़ौक़

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आख़िरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के उस्ताद और राजकवि शेख़ इब्राहीम ज़ौक़ की एक ग़ज़ल “तेरे आफ़त-ज़दा जिन दश्तों में अड़ जाते हैं” पढ़िए.

Zauq

तेरे आफ़त-ज़दा जिन दश्तों में अड़ जाते हैं
सब्र ओ ताक़त के वहाँ पाँव उखड़ जाते हैं

इतने बिगड़े हैं वो मुझ से के अगर नाम उन के
ख़त भी लिखता हूँ तो सब हर्फ़ बिगड़ जाते हैं

क्यूँ न लड़वाएँ उन्हें ग़ैर के करते हैं यही
हम-नशीं जिन के नसीबे कहीं लड़ जाते हैं

क्या आए तुम जो आए घड़ी दो घड़ी के बाद – ज़ौक़

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आख़िरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के उस्ताद और राजकवि शेख़ इब्राहीम ज़ौक़ की एक ग़ज़ल “क्या आए तुम जो आए घड़ी दो घड़ी के बाद” पढ़िए.

Zauq

क्या आए तुम जो आए घड़ी दो घड़ी के बाद
सीने में होगी साँस अड़ी दो घड़ी के बाद

क्या रोका अपने गिर्ये को हम ने के लग गई
फिर वो ही आँसुओं की झड़ी दो घड़ी के बाद

कोई घड़ी अगर वो मुलाएम हुए तो क्या
कह बैठेंगे फिर एक कड़ी दो घड़ी के बाद

उस लाल-ए-लब के हम ने लिए बोसे इस क़दर
सब उड़ गई मिसी की धड़ी दो घड़ी के बाद

अल्लाह रे ज़ोफ़-ए-सीना से हर आह-ए-बे-असर
लब तक जो पहुँची भी तो चढ़ी दो घड़ी के बाद

कल उस से हम ने तर्क-ए-मुलाक़ात की तो क्या
फिर उस बग़ैर कल न पड़ी दो घड़ी के बाद

थे दो घड़ी से शैख़ जी शैख़ी बघारते
सारी वो शैख़ी उन की झड़ी दो घड़ी के बाद

कहता रहा कुछ उस से अदू दो घड़ी तलक
ग़म्माज़ ने फिर और जड़ी दो घड़ी के बाद

परवाना गिर्द शम्मा के शब दो घड़ी रहा
फिर देखी उस की ख़ाक पड़ी दो घड़ी के बाद

तू दो घड़ी का वादा न कर देख जल्द आ
आने में होगी देर बड़ी दो घड़ी के बाद

गो दो घड़ी तक उस ने न देखा इधर तो क्या
आख़िर हमीं से आँख लड़ी दो घड़ी के बाद

क्या जाने दो घड़ी वो रहे ‘ज़ौक़’ किस तरह
फिर तो न ठहरे पाँव घड़ी दो घड़ी के बाद

कहाँ तलक कहूँ साक़ी के ला शराब तो दे – ज़ौक़

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आख़िरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के उस्ताद और राजकवि शेख़ इब्राहीम ज़ौक़ की एक ग़ज़ल “कहाँ तलक कहूँ साक़ी के ला शराब तो दे” पढ़िए.

Zauq

कहाँ तलक कहूँ साक़ी के ला शराब तो दे
न दे शराब डुबो कर कोई कबाब तो दे

बुझेगा सोज़-ए-दिल ऐ गिर्या पल में आब तो दे
दिगर है आग में दुनिया यूँ ही अज़ाब तो दे

गुज़रने गर ये मेरे सर से इतना आब तो दे
के सर पे चर्ख़ भी दिखलाई जूँ हुबाब तो दे

हज़ारों तिश्ना जिगर किस से होएँगे सैराब
ख़ुदा के वास्ते तेग़-ए-सितम को आब तो दे

तुम्हारे मतला-ए-अबरू पे ये कहे है ख़ाल
के ऐसा नुक़्ता कोई वक़्त-ए-इंतिख़ाब तो दे

दर-ए-क़ुबूल है दर-बाँ न बंद कर दर-ए-यार
दुआ-ए-ख़ैर मेरी होने मुस्तजाब तो दे

खुले है नाज़ से गुलशन में ग़ुंचा-ए-नरगिस
ज़रा दिखा तो उसे चश्म-ए-नीम-ख़्वाब तो दे

बला से आप न आएँ पे आदमी उन का
तसल्ली आ के मुझे वक़्त-ए-इज़्तिराब तो दे

हुआ बगूले में है कुश्तगान-ए-ज़ुल्फ़ की ख़ाक
के बाद-ए-मर्ग भी मालूम पेच-ओ-ताब तो दे

बला से कम न हो गिर्ये से मेरा सोज़-ए-जिगर
बुझा पर उन की ज़रा आतिश-ए-इताब तो दे

शहीद कीजियो क़ातिल अभी न कर जल्दी
ठहरने मुझ को तह-ए-तेग़-ए-इज़्तिराब तो दे

शिकार-ए-बस्ता-ए-फ़ितराक को तेरे मक़दूर
हुआ न ये भी के बोसा सर-ए-रिकाब तो दे

दिल-ए-बिरिश्ता को मेरे न छोड़ो मै-ख़्वारों
जो लज़्ज़त उस में है ऐसा मज़ा कबाब तो दे

नशे में होश किसे जो गिने हिसाब करे
जो तुझ को देना हैं बोसे बिला हिसाब तो दे

जवाब-ए-नामा नहीं गर तो रख दो नामा-ए-यार
जो पूछें क़ब्र में आशिक़ से कुछ जवाब तो दे

रखे है हौसला दरया कब अहल-ए-हिम्मत का
नहीं ये इतना के भर कासा-ए-हुबाब तो दे

कहाँ बुझी है तह-ए-ख़ाक मेरी आतिश-ए-दिल
कहो हवा से हिला दामन-ए-सहाब तो दे

ख़ुनुक दिलों की अगर आह-ए-सर्द दोज़ख़ में
पड़े तो वाक़ई इक बार आग दाब तो दे

करेगा क़त्ल वो ऐ ‘ज़ौक़’ तुझ को सुरमे से
निगह की तेग़ को होने सियाह-ताब तो दे

पहुँच रहुँगा सर-ए-मंज़िल-ए-फ़ना ऐ ‘ज़ौक़’
मिसाल-ए-नक़्श-ए-क़दम करने पा-तुराब तो दे

पुकारे जा रहे हो अजनबी से चाहते क्या हो – ज़फ़र गोरखपुरी

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ज़फ़र गोरखपुरी ऐसे शायर हैं जिसने एक विशिष्ट और आधुनिक अंदाज़ अपनाकर उर्दू ग़ज़ल के क्लासिकल मूड को नया आयाम दिया. उनकी ग़ज़ल “पुकारे जा रहे हो अजनबी से चाहते क्या हो” पढ़िये.

Zafar Gorakhpuri

पुकारे जा रहे हो अजनबी से चाहते क्या हो
ख़ुद पने शोर में गुम आदमी से चाहते क्या हो

ये आँखों में जो कुछ हैरत है क्या वो भी तुम्हें दे दें
बना कर बुत हमें अब ख़ामोशी से चाहते क्या हो

न इत्मिनान से बैठो न गहरी नींद में सो पाओ
मियाँ इस मुख़्तसर सी ज़िंदगी से चाहते क्या हो

उसे ठहरा सको इतनी भी तो वुसअत नहीं घर में
ये सब कुछ जान कर आवारगी से चाहते क्या हो

किनारों पर तुम्हारे वास्ते मोती बहा लाए
घरोंदे भी नहीं तोड़े नदी से चाहते क्या हो

चराग़-ए-शाम-ए-तन्हाई भी रौशन रख नहीं पाए
अब और आगे हवा के दोस्ती से चाहते क्या हो

जो आए वो हिसाब-ए-आब-ओ-दाना करने वाले थे – ज़फ़र गोरखपुरी

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ज़फ़र गोरखपुरी ऐसे शायर हैं जिसने एक विशिष्ट और आधुनिक अंदाज़ अपनाकर उर्दू ग़ज़ल के क्लासिकल मूड को नया आयाम दिया. उनकी ग़ज़ल “जो आए वो हिसाब-ए-आब-ओ-दाना करने वाले थे” पढ़िये.

Zafar Gorakhpuri

जो आए वो हिसाब-ए-आब-ओ-दाना करने वाले थे
गए वो लोग जो कार-ए-ज़माना करने वाले थे

उड़ाने के लिए कुछ कम नहीं है ख़ाक घर में भी
वो मौसम ही नहीं हैं जो दीवाना करने वाले थे

मेरी गुम-गश्तगी मेरे लिए छत बन गई वरना
ये दुनिया वाले मुझ को बे-ठिकाना करने वाले थे

न देते सारे मंज़र अक्स ही थोड़े से दे देते
हम आवारा कहाँ तज़ईन-ए-ख़ाना करने वाले थे

समंदर ले गया हम से वहाँ सारी सीपियाँ वापस
जिन्हें हम जमा कर के इक ख़ज़ाना करने वाले थे

‘ज़फ़र’ बे-ख़ानमाँ अपने को ख़ुद ही कर लिया तुम ने
ये कार-ए-ख़ैर तो अहल-ए-ज़माना करने वाले थे

इरादा हो अटल तो मोजज़ा ऐसा भी होता है – ज़फ़र गोरखपुरी

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ज़फ़र गोरखपुरी ऐसे शायर हैं जिसने एक विशिष्ट और आधुनिक अंदाज़ अपनाकर उर्दू ग़ज़ल के क्लासिकल मूड को नया आयाम दिया. उनकी ग़ज़ल “इरादा हो अटल तो मोजज़ा ऐसा भी होता है ” पढ़िये.

Zafar Gorakhpuri

इरादा हो अटल तो मोजज़ा ऐसा भी होता है
दिए को ज़िंदा रखती है हव़ा, ऐसा भी होता है

उदासी गीत गाती है मज़े लेती है वीरानी
हमारे घर में साहब रतजगा ऐसा भी होता है

अजब है रब्त की दुनिया ख़बर के दायरे में है
नहीं मिलता कभी अपना पता ऐसा भी होता है

किसी मासूम बच्चे के तबस्सुम में उतर जाओ
तो शायद ये समझ पाओ, ख़ुदा ऐसा भी होता है

ज़बां पर आ गए छाले मगर ये तो खुला हम पर
बहुत मीठे फलों का ज़ायक़ा ऐसा भी होता है

तुम्हारे ही तसव्वुर की किसी सरशार मंज़िल में
तुम्हारा साथ लगता है बुरा, ऐसा भी होता है

अब्र था कि ख़ुशबू था, कुछ ज़रूर था एक शख़्स – ज़फ़र गोरखपुरी

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ज़फ़र गोरखपुरी ऐसे शायर हैं जिसने एक विशिष्ट और आधुनिक अंदाज़ अपनाकर उर्दू ग़ज़ल के क्लासिकल मूड को नया आयाम दिया. उनकी ग़ज़ल “अब्र था कि ख़ुशबू था, कुछ ज़रूर था एक शख़्स” पढ़िये.

Zafar Gorakhpuri

अब्र था कि ख़ुशबू था, कुछ ज़रूर था एक शख़्स
हाथ भी नहीं आया, पास भी रहा एक शख़्स

मैं तो दस्तख़त कर दूँ, झूठ पर भी, ऐ लोगो !
सच पे जान देता है, मुझमें दूसरा एक शख़्स

क़ुर्बतों की ख़्वाहिश भी फ़ासले बढ़ाती है
कितना दूर लगता है, सामने खड़ा एक शख़्स

जब भी कोई समझौता ज़िन्दगी से करता हूँ
ज़ोर से लगाता है, मुझमें क़हक़हा एक शख़्स

चीख़ता नहीं, लेकिन टूटता है छूने से
अपने वास्ते ख़ुद ही, आबला हुआ एक शख़्स

जाने कितने टुकड़ों में बँट के रह गया होगा
ख़्वाब की बहुत ऊँची, शाख़ से गिरा एक शख़्स