ज़फ़र गोरखपुरी ऐसे शायर हैं जिसने एक विशिष्ट और आधुनिक अंदाज़ अपनाकर उर्दू ग़ज़ल के क्लासिकल मूड को नया आयाम दिया. उनकी ग़ज़ल “पुकारे जा रहे हो अजनबी से चाहते क्या हो” पढ़िये.
पुकारे जा रहे हो अजनबी से चाहते क्या हो
ख़ुद पने शोर में गुम आदमी से चाहते क्या हो
ये आँखों में जो कुछ हैरत है क्या वो भी तुम्हें दे दें
बना कर बुत हमें अब ख़ामोशी से चाहते क्या हो
न इत्मिनान से बैठो न गहरी नींद में सो पाओ
मियाँ इस मुख़्तसर सी ज़िंदगी से चाहते क्या हो
उसे ठहरा सको इतनी भी तो वुसअत नहीं घर में
ये सब कुछ जान कर आवारगी से चाहते क्या हो
किनारों पर तुम्हारे वास्ते मोती बहा लाए
घरोंदे भी नहीं तोड़े नदी से चाहते क्या हो
चराग़-ए-शाम-ए-तन्हाई भी रौशन रख नहीं पाए
अब और आगे हवा के दोस्ती से चाहते क्या हो
ज़फ़र गोरखपुरी ऐसे शायर हैं जिसने एक विशिष्ट और आधुनिक अंदाज़ अपनाकर उर्दू ग़ज़ल के क्लासिकल मूड को नया आयाम दिया. उनकी ग़ज़ल “जो आए वो हिसाब-ए-आब-ओ-दाना करने वाले थे” पढ़िये.
जो आए वो हिसाब-ए-आब-ओ-दाना करने वाले थे
गए वो लोग जो कार-ए-ज़माना करने वाले थे
उड़ाने के लिए कुछ कम नहीं है ख़ाक घर में भी
वो मौसम ही नहीं हैं जो दीवाना करने वाले थे
मेरी गुम-गश्तगी मेरे लिए छत बन गई वरना
ये दुनिया वाले मुझ को बे-ठिकाना करने वाले थे
न देते सारे मंज़र अक्स ही थोड़े से दे देते
हम आवारा कहाँ तज़ईन-ए-ख़ाना करने वाले थे
समंदर ले गया हम से वहाँ सारी सीपियाँ वापस
जिन्हें हम जमा कर के इक ख़ज़ाना करने वाले थे
‘ज़फ़र’ बे-ख़ानमाँ अपने को ख़ुद ही कर लिया तुम ने
ये कार-ए-ख़ैर तो अहल-ए-ज़माना करने वाले थे
ज़फ़र गोरखपुरी ऐसे शायर हैं जिसने एक विशिष्ट और आधुनिक अंदाज़ अपनाकर उर्दू ग़ज़ल के क्लासिकल मूड को नया आयाम दिया. उनकी ग़ज़ल “इरादा हो अटल तो मोजज़ा ऐसा भी होता है ” पढ़िये.
इरादा हो अटल तो मोजज़ा ऐसा भी होता है
दिए को ज़िंदा रखती है हव़ा, ऐसा भी होता है
उदासी गीत गाती है मज़े लेती है वीरानी
हमारे घर में साहब रतजगा ऐसा भी होता है
अजब है रब्त की दुनिया ख़बर के दायरे में है
नहीं मिलता कभी अपना पता ऐसा भी होता है
किसी मासूम बच्चे के तबस्सुम में उतर जाओ
तो शायद ये समझ पाओ, ख़ुदा ऐसा भी होता है
ज़बां पर आ गए छाले मगर ये तो खुला हम पर
बहुत मीठे फलों का ज़ायक़ा ऐसा भी होता है
तुम्हारे ही तसव्वुर की किसी सरशार मंज़िल में
तुम्हारा साथ लगता है बुरा, ऐसा भी होता है
ज़फ़र गोरखपुरी ऐसे शायर हैं जिसने एक विशिष्ट और आधुनिक अंदाज़ अपनाकर उर्दू ग़ज़ल के क्लासिकल मूड को नया आयाम दिया. उनकी ग़ज़ल “अब्र था कि ख़ुशबू था, कुछ ज़रूर था एक शख़्स” पढ़िये.
अब्र था कि ख़ुशबू था, कुछ ज़रूर था एक शख़्स
हाथ भी नहीं आया, पास भी रहा एक शख़्स
मैं तो दस्तख़त कर दूँ, झूठ पर भी, ऐ लोगो !
सच पे जान देता है, मुझमें दूसरा एक शख़्स
क़ुर्बतों की ख़्वाहिश भी फ़ासले बढ़ाती है
कितना दूर लगता है, सामने खड़ा एक शख़्स
जब भी कोई समझौता ज़िन्दगी से करता हूँ
ज़ोर से लगाता है, मुझमें क़हक़हा एक शख़्स
चीख़ता नहीं, लेकिन टूटता है छूने से
अपने वास्ते ख़ुद ही, आबला हुआ एक शख़्स
जाने कितने टुकड़ों में बँट के रह गया होगा
ख़्वाब की बहुत ऊँची, शाख़ से गिरा एक शख़्स