ज़फ़र गोरखपुरी ऐसे शायर हैं जिसने एक विशिष्ट और आधुनिक अंदाज़ अपनाकर उर्दू ग़ज़ल के क्लासिकल मूड को नया आयाम दिया. उनकी ग़ज़ल “अब्र था कि ख़ुशबू था, कुछ ज़रूर था एक शख़्स” पढ़िये.
अब्र था कि ख़ुशबू था, कुछ ज़रूर था एक शख़्स
हाथ भी नहीं आया, पास भी रहा एक शख़्स
मैं तो दस्तख़त कर दूँ, झूठ पर भी, ऐ लोगो !
सच पे जान देता है, मुझमें दूसरा एक शख़्स
क़ुर्बतों की ख़्वाहिश भी फ़ासले बढ़ाती है
कितना दूर लगता है, सामने खड़ा एक शख़्स
जब भी कोई समझौता ज़िन्दगी से करता हूँ
ज़ोर से लगाता है, मुझमें क़हक़हा एक शख़्स
चीख़ता नहीं, लेकिन टूटता है छूने से
अपने वास्ते ख़ुद ही, आबला हुआ एक शख़्स
जाने कितने टुकड़ों में बँट के रह गया होगा
ख़्वाब की बहुत ऊँची, शाख़ से गिरा एक शख़्स