अमीर मीनाई की ग़ज़ल मुख़्तलिफ़ रंगों और ख़ुशबुओं के फूलों का एक हसीन गुलदस्ता है. प्रस्तुत है उनकी ग़ज़ल “न बेवफ़ाई का डर था न ग़म जुदाई का “.
न बेवफ़ाई का डर था न ग़म जुदाई का
मज़ा में क्या कहूँ आग़ाज़-ए-आश्नाई का
कहाँ नहीं है तमाशा तिरी ख़ुदाई का
मगर जो देखने दे रोब किबरियाई का
वो ना-तवाँ हूँ अगर नब्ज़ को हुई जुम्बिश
तो साफ़ जोड़ जुदा हो गया कलाई का
शब-ए-विसाल बहुत कम है आसमाँ से कहो
कि जोड़ दे कोई टुकड़ा शब-ए-जुदाई का
ये जोश-ए-हुस्न से तंग आई है क़बा इन की
कि बंद बंद है ख़्वाहाँ गिरह-कुशाई का
कमान हाथ से रख सैद-गाह-ए-इरफ़ाँ में
कि तीर सैद है याँ दाम-ए-ना-रसाई का
वो बद-नसीब हूँ यार आए मेरे घर तो बने
सिमट के वस्ल की शब तिल रुख़-ए-जुदाई का
हज़ारों काफ़िर ओ मोमिन पड़े हैं सज्दे में
बुतों के घर में भी सामान है ख़ुदाई का
तमाम हो गए हम पहले ही निगाह में हैफ़
न रात वस्ल की देखी न दिन जुदाई का
नहीं है मोहर लिफ़ाफ़ा पे ख़त के ऐ क़ासिद
ये दाग़ है मिरी क़िस्मत की ना-रसाई का
नक़ाब डाल के ऐ आफ़्ताब-ए-हश्र निकल
ख़ुदा से डर ये कहीं दिन है ख़ुद-नुमाई का
नहीं क़रार घड़ी भर किसी के पहलू में
ये ज़ौक़ है तिरे नावक को दिलरुबाई का
मरी तरफ़ से कोई जा के कोहकन से कहे
नहीं नहीं ये महल ज़ोर-आज़माई का
कहा जो मैं ने कि मैं ख़ाक-ए-राह हूँ तेरा
तो बोले है अभी पिंदार ख़ुद-नुमाई का
जुनूँ जो मेरी तरफ़ हो वो जस्त-ओ-ख़ेज़ करूँ
कि दिल हो टूट के टुकड़े शिकस्ता-पाई का
‘अमीर’ रवैय्ये अपने नसीब को ऐसा
कि हो सपेद सियह अब्र ना-रसाई का