Presenting the ghazal “Meherban Ho Ke Bula Lo Mujhe Chahe Jis Waqt”, written by the Urdu Poet Mirza Ghalib.
मेहरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त
मेहरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त
मैं गया वक़्त नहीं हूँ कि फिर आ भी न सकूँ
ज़ोफ़ में ताना-ए-अग़्यार का शिकवा क्या है
बात कुछ सर तो नहीं है कि उठा भी न सकूँ
ज़हर मिलता ही नहीं मुझ को सितमगर वर्ना
क्या क़सम है तिरे मिलने की कि खा भी न सकूँ
इस क़दर ज़ब्त कहाँ है कभी आ भी न सकूँ
सितम इतना तो न कीजे कि उठा भी न सकूँ
लग गई आग अगर घर को तो अंदेशा क्या
शो’ला-ए-दिल तो नहीं है कि बुझा भी न सकूँ
तुम न आओगे तो मरने की हैं सौ तदबीरें
मौत कुछ तुम तो नहीं हो कि बुला भी न सकूँ
हँस के बुलवाइए मिट जाएगा सब दिल का गिला
क्या तसव्वुर है तुम्हारा कि मिटा भी न सकूँ