अहमद फ़राज़ आधुनिक उर्दू के सर्वश्रेष्ठ शायरों में से हैं. उनकी शायरी दर्द और मोहब्बत की शायरी है. पेश है फ़राज़ की एक बेहतरीन ग़ज़ल “करूँ न याद मगर किस तरह भुलाऊँ उसे“.
करूँ न याद मगर किस तरह भुलाऊँ उसे
ग़ज़ल बहाना करूँ और गुनगुनाऊँ उसे
वो ख़ार-ख़ार है शाख़-ए-गुलाब की मानिन्द
मैं ज़ख़्म-ज़ख़्म हूँ फिर भी गले लगाऊँ उसे
ये लोग तज़्क़िरे करते हैं अपने लोगों के
मैं कैसे बात करूँ और कहाँ से लाऊँ उसे
मगर वो ज़ूदफ़रामोश ज़ूद-रंज भी है
कि रूठ जाये अगर याद कुछ दिलाऊँ उसे
वही जो दौलत-ए-दिल है वही जो राहत-ए-जाँ
तुम्हारी बात पे ऐ नासिहो गँवाऊँ उसे
जो हमसफ़र सर-ए-मंज़िल बिछड़ रहा है “फ़राज़”
अजब नहीं कि अगर याद भी न आऊँ उसे
ख़ार-ख़ार = कँटीला
तज़्क़िरे = चर्चाएँ
ज़ूदफ़रामोश = भुलक्कड़
ज़ूद-रंज = शीघ्रबुरा मान जाने वाला
नासिहो = उपदेशको