जॉन एलिया की दो ग़ज़लें – कौन इस घर की देख-भाल करे?

जॉन एलिया अपने अपारम्परिक अंदाज़ के लिए मशहूर शायर थे. वे युवाओं में शायद इसलिए बेहद मशहूर हैं कि वो उनके मन की बातें बड़े आसानी से कह देते हैं. आज देखते हैं उनकी दो ग़ज़लें –

Jon Elia two ghazals umra guzregi imtehan ek hi muzda subah laati hai

उम्र गुज़रेगी इम्तिहान में क्या(Umr Guzregi Imtehan Mein Kya?)

उम्र गुज़रेगी इम्तिहान में क्या
दाग़ ही देंगे मुझ को दान में क्या

मेरी हर बात बे-असर ही रही
नक़्स है कुछ मिरे बयान में क्या

मुझ को तो कोई टोकता भी नहीं
यही होता है ख़ानदान में क्या

अपनी महरूमियाँ छुपाते हैं
हम ग़रीबों की आन-बान में क्या

ख़ुद को जाना जुदा ज़माने से
आ गया था मिरे गुमान में क्या

शाम ही से दुकान-ए-दीद है बंद
नहीं नुक़सान तक दुकान में क्या

ऐ मिरे सुब्ह-ओ-शाम-ए-दिल की शफ़क़
तू नहाती है अब भी बान में क्या

बोलते क्यूँ नहीं मिरे हक़ में
आबले पड़ गए ज़बान में क्या

ख़ामुशी कह रही है कान में क्या
आ रहा है मिरे गुमान में क्या

दिल कि आते हैं जिस को ध्यान बहुत
ख़ुद भी आता है अपने ध्यान में क्या

वो मिले तो ये पूछना है मुझे
अब भी हूँ मैं तिरी अमान में क्या

यूँ जो तकता है आसमान को तू
कोई रहता है आसमान में क्या

है नसीम-ए-बहार गर्द-आलूद
ख़ाक उड़ती है उस मकान में क्या

ये मुझे चैन क्यूँ नहीं पड़ता
एक ही शख़्स था जहान में क्या

एक ही मुज़्दा सुब्ह लाती है

एक ही मुज़्दा सुब्ह लाती है
धूप आँगन में फैल जाती है

रंग-ए-मौसम है और बाद-ए-सबा
शहर कूचों में ख़ाक उड़ाती है

फ़र्श पर काग़ज़ उड़ते फिरते हैं
मेज़ पर गर्द जमती जाती है

सोचता हूँ कि उस की याद आख़िर
अब किसे रात भर जगाती है

मैं भी इज़्न-ए-नवा-गरी चाहूँ
बे-दिली भी तो लब हिलाती है

सो गए पेड़ जाग उठी ख़ुश्बू
ज़िंदगी ख़्वाब क्यूँ दिखाती है

उस सरापा वफ़ा की फ़ुर्क़त में
ख़्वाहिश-ए-ग़ैर क्यूँ सताती है

आप अपने से हम-सुख़न रहना
हम-नशीं साँस फूल जाती है

क्या सितम है कि अब तिरी सूरत
ग़ौर करने पे याद आती है

कौन इस घर की देख-भाल करे
रोज़ इक चीज़ टूट जाती है