मुमताज़ मिर्ज़ा उर्दू की प्रसिद्ध शायरा हैं, जिनकी शायरी में फ़ारसी साहित्य का प्रभाव दीखता है. प्रस्तुत है उनकी एक ग़ज़ल “हर दर्द के हर ग़म के तलबगार हमीं हैं”.
हर दर्द के हर ग़म के तलबगार हमीं हैं
इस जिंस-ए-गिरामी के ख़रीदार हमीं हैं
दुनिया में जफ़ाओं के सज़ा-वार हमीं हैं
‘मुमताज़’ ब-हर-हाल गुनाहगार हमीं हैं
जो इश्क़ में गुज़री है सो गुज़री है हमीं पर
आवारा-ओ-रूस्वा सर-ए-बाज़ार हमीं हैं
अब कौन करे रोज़ नई उन से शिकायत
अच्छा चलो तस्लीम जफ़ा-कार हमीं हैं
‘मुमताज़’ जो नाज़ाँ हैं बहुत तिश्ना-लबी पर
कह दे कोई साक़ी से वो मय-ख़्वार हमीं हैं