अहमद फ़राज़ आधुनिक उर्दू के सर्वश्रेष्ठ शायरों में से हैं. उनकी शायरी दर्द और मोहब्बत की शायरी है. पेश है फ़राज़ की एक बेहतरीन ग़ज़ल “हाथ उठाए हैं मगर लब पे दुआ कोई नहीं“.
हाथ उठाए हैं मगर लब पे दुआ कोई नहीं
की इबादत भी तो वो जिस की जज़ा कोई नहीं
ये भी वक़्त आना था अब तू गोश-बर-आवाज़ है
और मेरे बरबते-दिल में सदा कोई नहीं
आ के अब तस्लीम कर लें तू नहीं तो मैं सही
कौन मानेगा के हम में बेवफ़ा कोई नहीं
वक़्त ने वो ख़ाक उड़ाई है के दिल के दश्त से
क़ाफ़िले गुज़रे हैं फिर भी नक़्शे-पा कोई नहीं
ख़ुद को यूँ महसूर कर बैठा हूँ अपनी ज़ात में
मंज़िलें चारों तरफ़ है रास्ता कोई नहीं
कैसे रस्तों से चले और किस जगह पहुँचे “फ़राज़”
या हुजूम-ए-दोस्ताँ था साथ या कोई नहीं
जज़ा = प्रतिफल
बरबते-दिल = सितार जैसा एक वाद्य यंत्र
महसूर = घिरा हुआ
हुजूम-ए-दोस्ताँ = दोस्तों का समूह