मुमताज़ मिर्ज़ा उर्दू की प्रसिद्ध शायरा हैं, जिनकी शायरी में फ़ारसी साहित्य का प्रभाव दीखता है. प्रस्तुत है उनकी एक ग़ज़ल “हाल न पूछो रोज़-ओ-शब का कोई अनोखी बात नहीं”.
हाल न पूछो रोज़-ओ-शब का कोई अनोखी बात नहीं
दिन को कैसे रात कहें हम रात भी अब तो रात नहीं
लगने को तो सेहन-ए-चमन में दोनों अच्छे लगते हैं
काँटों में जो अपना-पन है फूलों में वो बात नहीं
दिल से भुला तो दें हम उन को लेकिन इस को क्या कीजे
सदियों की रूदाद भुलाना अपने बस की बात नहीं
गुलशन गुलशन शाख़ ओ शजर पर रोज़ नशेमन जलते हैं
किस ने कहा था मौसम बदला अगले से हालात नहीं
एक ज़रा सी बात पे क्यूँ है इतना हंगामा ‘मुमताज़’
शीशा-ए-दिल ही तो टूटा है और तो कोई बात नहीं