दिन को भी इतना अन्धेरा है मेरे कमरे में – ज़फ़र गोरखपुरी

The ghazal “Din ko bhi Itana Andhera Hai Mere Kamare mein” by the urdu poet Zafar Gorakhpuri. ज़फ़र गोरखपुरी ऐसे शायर हैं जिसने एक विशिष्ट और आधुनिक अंदाज़ अपनाकर उर्दू ग़ज़ल के क्लासिकल मूड को नया आयाम दिया. उनकी ग़ज़ल “दिन को भी इतना अन्धेरा है मेरे कमरे में” सुनिए आज जिसे गाया है पंकज उधास ने.

Zafar Gorakhpuri

दिन को भी इतना अन्धेरा है मेरे कमरे में

दिन को भी इतना अन्धेरा है मेरे कमरे में
साया आते हुए डरता है मेरे कमरे में

ग़म थका हारा मुसाफ़िर है चला जाएगा
कुछ दिनों के लिए ठहरा है मेरे कमरे में

सुबह तक देखना अफ़साना बना डालेगा
तुझको एक शख्स ने देखा है मेरे कमरे में

दर-ब-दर दिन को भटकता है तसव्वुर मेरा
हाँ मगर रात को रहता है मेरे कमरे में

चोर बैठा है कहाँ सोच रहा हूँ मैं ‘ज़फ़र‘
क्या कोई और भी कमरा है मेरे कमरे में

Din ko bhi Itana Andhera Hai Mere Kamare mein

Din ko bhi itanaa andheraa hai mere kamare men
Saya aate hue Darataa hai mere kamare men

Gham thakaa haraa musaafir hai chalaa jaaegaa
Kuchh dinon ke lie Thahara hai mere kamare men

Subah tak dekhanaa afsaanaa banaa Daalegaa
Tujhako ek shakhs ne dekhaa hai mere kamare men

Dar-b-dar din ko bhatakata hai tasavvur meraa
Haan magar raat ko rahata hai mere kamare men

Chor baithaa hai kahaan soch rahaa hoon main ‘zafar‘
Kyaa koi aur bhii kamara hai mere kamare men