Read this beautiful ghazal that is penned by Hairat Allahabadi, who was a contemporary of Akbar Allahabadi.
बोसा लिया जो चश्म का बीमार हो गए
बोसा लिया जो चश्म का बीमार हो गए
ज़ुल्फ़ें छूईं बला में गिरफ़्तार हो गए
सकता है बैठे सामने तकते हैं उन की शक्ल
क्या हम भी अक्स-ए-आईना-ए-यार हो गए
बैठे तुम्हारे दर पे तो जुम्बिश तलक न की
ऐसे जमे कि साया-ए-दीवार हो गए
हम को तो उन के ख़ंजर-ए-अबरू के इश्क़ में
दिन ज़िंदगी के काटने दुश्वार हो गए
सुना है ज़ख़्मी-ए-तेग़-ए-निगह का दम निकलता है
सुना है ज़ख़्मी-ए-तेग़-ए-निगह का दम निकलता है
तिरा अरमान ले ऐ क़ातिल-ए-आलम निकलता है
न आँखों में मुरव्वत है न जा-ए-रहम है दिल में
जहाँ में बेवफ़ा माशूक़ तुम सा कम निकलता है
कहा आशिक़ से वाक़िफ़ हो तो फ़रमाया नहीं वाक़िफ़
मगर हाँ इस तरफ़ से एक ना-महरम निकलता है
मोहब्बत उठ गई सारे ज़माने से मगर अब तक
हमारे दोस्तों में बा-वफ़ा इक ग़म निकलता है
पता क़ासिद ये रखना याद उस क़ातिल के कूचे से
कोई नालाँ कोई बिस्मिल कोई बे-दम निकलता है