अहमद नदीम क़ासमी एक तरक़्क़ी-पसंद शायर के रूप में जाने जाते हैं. महफ़िल पर पढ़िए उनकी एक बेहतरीन ग़ज़ल जिसका शीर्षक है “तुझे खोकर भी तुझे पाऊं जहाँ तक देखूँ”
तुझे खोकर भी तुझे पाऊं जहाँ तक देखूँ
हुस्न-ए-यज़्दां से तुझे हुस्न-ए-बुतां तक देखूं
तूने यूं देखा है जैसे कभी देखा ही न था
मैं तो दिल में तेरे क़दमों के निशां तक देखूँ
सिर्फ़ इस शौक़ में पूछी हैं हज़ारों बातें
मै तेरा हुस्न तेरे हुस्न-ए-बयां तक देखूँ
वक़्त ने ज़ेहन में धुंधला दिये तेरे खद्द-ओ-खाल
यूं तो मैं तूटते तारों का धुआं तक देखूँ
दिल गया था तो ये आँखें भी कोई ले जाता
मैं फ़क़त एक ही तस्वीर कहाँ तक देखूँ
एक हक़ीक़त सही फ़िरदौस में हूरों का वजूद
हुस्न-ए-इन्सां से निपट लूं तो वहाँ तक देखूँ
हुस्न-ए-यज़्दां = भगवान की सुन्दरता
हुस्न-ए-बुतां = बुत/मूर्ति की सुन्दरता
खद्द-ओ-खाल = यादें / सूरत