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दीपक जलता रहा रात – गोपाल सिंह नेपाली

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गोपाल सिंह नेपाली हिन्दी एवं नेपाली के प्रसिद्ध कवि थे. प्रस्तुत है उनकी एक बेहद खूबसूरत हिंदी की कविता जिसका शीर्षक है – “दीपक जलता रहा रात”.

Gopal Singh Nepali

एक

दुख की घनी बनी अँधियारी
सुख के टिमटिम दूर सितारे
उठती रही पीर की बदली
मन के पंछी उड़-उड़ हारे
बची रही प्रिय आँखों से
मेरी कुटिया एक किनारे
मिलता रहा स्नेह-रस थोड़ा
दीपक जलता रहा रात भर

दो

दुनिया देखी भी अनदेखी
नगर न जाना, डगर न जानी
रंग न देखा, रूप न देखा
केवल बोली ही पहचानी
कोई भी तो साथ नहीं था
साथी था आँखों का पानी
सूनी डगर, सितारे टिमटिम
पंथी चलता रहा रात भर

तीन

अगणित तारों के प्रकाश में
मैं अपने पथ पर चलता था
मैंने देखा, गगन-गली में
चाँद सितारों को छलता था
आँधी में, तूफ़ानों में भी
प्राण-दीप मेरा जलता था
कोई छली खेल में मेरी
दिशा बदलता रहा रात भर

चार

मेरे प्राण मिलन के भूखे
ये आँखें दर्शन की प्यासी
चलती रहीं घटाएँ काली
अम्बर में प्रिय की छाया-सी
श्याम गगन से नयन जुड़ाए
जाग रहा अन्तर का वासी
काले मेघों के टुकड़ों से
चाँद निकलता रहा रात भर

पाँच

छिपने नहीं दिया फूलों को
फूलों के उड़ते सुवास ने
रहने नहीं दिया अनजाना
शशि को शशि के मंद हास ने
भरमाया जीवन को दर-दर
जीवन की ही मधुर आस ने
मुझको मेरी आँखों का ही
सपना छलता रहा रात भर

छह

होती रही रात भर चुपके
आँख-मिचौनी शशि-बादल में
लुटके-छिपते रहे सितारे
अम्बर के उड़ते आँचल में
बनती-मिटती रहीं लहरियाँ
जीवन की यमुना के जल में
मेरे मधुर मिलन का क्षण भी
पल-पल ढलता रहा रात भर

सात

सूरज को प्राची में उठकर
पश्चिम ओर चला जाना है
रजनी को हर रोज़ रात भर
तारक-दीप जला जाना है
फूलों को धूलों में मिलकर
जग को दिल बहला जाना है
एक फूँक के लिए, प्राण का
दीप मचलता रहा रात भर

भूल ग़लती – गजानन माधव मुक्तिबोध

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गजानन माधव मुक्तिबोध को प्रगतिशील कविता और नयी कविता के बीच का एक सेतु भी माना जाता है. प्रस्तुत है उनकी एक कविता – “भूल ग़लती”.

Gajanan Madhav Muktibodh

भूल-ग़लती
आज बैठी है ज़िरहबख्तर पहनकर
तख्त पर दिल के,
चमकते हैं खड़े हथियार उसके दूर तक,
आँखें चिलकती हैं नुकीले तेज पत्थर सी,
खड़ी हैं सिर झुकाए
सब कतारें
बेजुबां बेबस सलाम में,
अनगिनत खम्भों व मेहराबों-थमे
दरबारे आम में।

सामने
बेचैन घावों की अज़ब तिरछी लकीरों से कटा
चेहरा
कि जिस पर काँप
दिल की भाप उठती है…
पहने हथकड़ी वह एक ऊँचा कद
समूचे जिस्म पर लत्तर
झलकते लाल लम्बे दाग
बहते खून के
वह क़ैद कर लाया गया ईमान…
सुलतानी निगाहों में निगाहें डालता,
बेख़ौफ नीली बिजलियों को फैंकता
खामोश !!
सब खामोश
मनसबदार
शाइर और सूफ़ी,
अल गजाली, इब्ने सिन्ना, अलबरूनी
आलिमो फाजिल सिपहसालार, सब सरदार
हैं खामोश !!

नामंजूर
उसको जिन्दगी की शर्म की सी शर्त
नामंजूर हठ इनकार का सिर तान..खुद-मुख्तार
कोई सोचता उस वक्त-
छाये जा रहे हैं सल्तनत पर घने साये स्याह,
सुलतानी जिरहबख्तर बना है सिर्फ मिट्टी का,
वो-रेत का-सा ढेर-शाहंशाह,
शाही धाक का अब सिर्फ सन्नाटा !!
(लेकिन, ना
जमाना साँप का काटा)
भूल (आलमगीर)
मेरी आपकी कमजोरियों के स्याह
लोहे का जिरहबख्तर पहन, खूँखार
हाँ खूँखार आलीजाह,
वो आँखें सचाई की निकाले डालता,
सब बस्तियाँ दिल की उजाड़े डालता
करता हमे वह घेर
बेबुनियाद, बेसिर-पैर..
हम सब क़ैद हैं उसके चमकते तामझाम में
शाही मुकाम में !!

इतने में हमीं में से
अजीब कराह सा कोई निकल भागा
भरे दरबारे-आम में मैं भी
सँभल जागा
कतारों में खड़े खुदगर्ज-बा-हथियार
बख्तरबंद समझौते
सहमकर, रह गए,
दिल में अलग जबड़ा, अलग दाढ़ी लिए,
दुमुँहेपन के सौ तज़ुर्बों की बुज़ुर्गी से भरे,
दढ़ियल सिपहसालार संजीदा
सहमकर रह गये !!

लेकिन, उधर उस ओर,
कोई, बुर्ज़ के उस तरफ़ जा पहुँचा,
अँधेरी घाटियों के गोल टीलों, घने पेड़ों में
कहीं पर खो गया,
महसूस होता है कि यह बेनाम
बेमालूम दर्रों के इलाक़े में
( सचाई के सुनहले तेज़ अक्सों के धुँधलके में)
मुहैया कर रहा लश्कर;
हमारी हार का बदला चुकाने आयगा
संकल्प-धर्मा चेतना का रक्तप्लावित स्वर,
हमारे ही हृदय का गुप्त स्वर्णाक्षर
प्रकट होकर विकट हो जायगा !!

मृत्यु और कवि – गजानन माधव मुक्तिबोध

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गजानन माधव मुक्तिबोध को प्रगतिशील कविता और नयी कविता के बीच का एक सेतु भी माना जाता है. प्रस्तुत है उनकी एक कविता – “मृत्यु और कवि”.

Gajanan Madhav Muktibodh

घनी रात, बादल रिमझिम हैं, दिशा मूक, निस्तब्ध वनंतर
व्यापक अंधकार में सिकुड़ी सोयी नर की बस्ती भयकर
है निस्तब्ध गगन, रोती-सी सरिता-धार चली गहराती,
जीवन-लीला को समाप्त कर मरण-सेज पर है कोई नर
बहुत संकुचित छोटा घर है, दीपालोकित फिर भी धुंधला,
वधू मूर्छिता, पिता अर्ध-मृत, दुखिता माता स्पंदन-हीन
घनी रात, बादल रिमझिम हैं, दिशा मूक, कवि का मन गीला
“ये सब क्षनिक, क्षनिक जीवन है, मानव जीवन है क्षण-भंगुर” ।

ऐसा मत कह मेरे कवि, इस क्षण संवेदन से हो आतुर
जीवन चिंतन में निर्णय पर अकस्मात मत आ, ओ निर्मल !
इस वीभत्स प्रसंग में रहो तुम अत्यंत स्वतंत्र निराकुल
भ्रष्ट ना होने दो युग-युग की सतत साधना महाआराधना
इस क्षण-भर के दुख-भार से, रहो अविचिलित, रहो अचंचल
अंतरदीपक के प्रकाश में विणत-प्रणत आत्मस्य रहो तुम
जीवन के इस गहन अटल के लिये मृत्यु का अर्थ कहो तुम ।

क्षण-भंगुरता के इस क्षण में जीवन की गति, जीवन का स्वर
दो सौ वर्ष आयु होती तो क्या अधिक सुखी होता नर?
इसी अमर धारा के आगे बहने के हित ये सब नश्वर,
सृजनशील जीवन के स्वर में गाओ मरण-गीत तुम सुंदर
तुम कवि हो, यह फैल चले मृदु गीत निर्बल मानव के घर-घर
ज्योतित हों मुख नवम आशा से, जीवन की गति, जीवन का स्वर ।

बहुत दिनों से – गजानन माधव मुक्तिबोध

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गजानन माधव मुक्तिबोध को प्रगतिशील कविता और नयी कविता के बीच का एक सेतु भी माना जाता है. प्रस्तुत है उनकी एक कविता – “बहुत दिनों से “.

Gajanan Madhav Muktibodh

मैं बहुत दिनों से बहुत दिनों से
बहुत-बहुत सी बातें तुमसे चाह रहा था कहना
और कि साथ यों साथ-साथ
फिर बहना बहना बहना
मेघों की आवाज़ों से
कुहरे की भाषाओं से
रंगों के उद्भासों से ज्यों नभ का कोना-कोना
है बोल रहा धरती से
जी खोल रहा धरती से
त्यों चाह रहा कहना
उपमा संकेतों से
रूपक से, मौन प्रतीकों से

मैं बहुत दिनों से बहुत-बहुत-सी बातें
तुमसे चाह रहा था कहना!
जैसे मैदानों को आसमान,
कुहरे की मेघों की भाषा त्याग
बिचारा आसमान कुछ
रूप बदलकर रंग बदलकर कहे।

चांद का मुँह टेढ़ा है – गजानन माधव मुक्तिबोध

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गजानन माधव मुक्तिबोध को प्रगतिशील कविता और नयी कविता के बीच का एक सेतु भी माना जाता है. प्रस्तुत है उनकी एक कविता – “चांद का मुँह टेढ़ा है”.

Gajanan Madhav Muktibodh

नगर के बीचों-बीच
आधी रात–अंधेरे की काली स्याह
शिलाओं से बनी हुई
भीतों और अहातों के, काँच-टुकड़े जमे हुए
ऊँचे-ऊँचे कन्धों पर
चांदनी की फैली हुई सँवलायी झालरें।
कारखाना–अहाते के उस पार
धूम्र मुख चिमनियों के ऊँचे-ऊँचे
उद्गार–चिह्नाकार–मीनार
मीनारों के बीचों-बीच
चांद का है टेढ़ा मुँह!!
भयानक स्याह सन तिरपन का चांद वह !!
गगन में करफ़्यू है
धरती पर चुपचाप ज़हरीली छिः थूः है !!
पीपल के खाली पड़े घोंसलों में पक्षियों के,
पैठे हैं खाली हुए कारतूस ।
गंजे-सिर चांद की सँवलायी किरनों के जासूस
साम-सूम नगर में धीरे-धीरे घूम-घाम
नगर के कोनों के तिकोनों में छिपे है !!
चांद की कनखियों की कोण-गामी किरनें
पीली-पीली रोशनी की, बिछाती है
अंधेरे में, पट्टियाँ ।
देखती है नगर की ज़िन्दगी का टूटा-फूटा
उदास प्रसार वह ।

समीप विशालकार
अंधियाले लाल पर
सूनेपन की स्याही में डूबी हुई
चांदनी भी सँवलायी हुई है !!

भीमाकार पुलों के बहुत नीचे, भयभीत
मनुष्य-बस्ती के बियाबान तटों पर
बहते हुए पथरीले नालों की धारा में
धराशायी चांदनी के होंठ काले पड़ गये

हरिजन गलियों में
लटकी है पेड़ पर
कुहासे के भूतों की साँवली चूनरी–
चूनरी में अटकी है कंजी आँख गंजे-सिर
टेढ़े-मुँह चांद की ।

बारह का वक़्त है,
भुसभुसे उजाले का फुसफुसाता षड्यन्त्र
शहर में चारों ओर;
ज़माना भी सख्त है !!

अजी, इस मोड़ पर
बरगद की घनघोर शाखाओं की गठियल
अजगरी मेहराब–
मरे हुए ज़मानों की संगठित छायाओं में
बसी हुई
सड़ी-बुसी बास लिये–
फैली है गली के
मुहाने में चुपचाप ।
लोगों के अरे ! आने-जाने में चुपचाप,
अजगरी कमानी से गिरती है टिप-टिप
फड़फड़ाते पक्षियों की बीट–
मानो समय की बीट हो !!
गगन में कर्फ़्यू है,
वृक्षों में बैठे हुए पक्षियों पर करफ़्यू है,
धरती पर किन्तु अजी ! ज़हरीली छिः थूः है ।

बरगद की डाल एक
मुहाने से आगे फैल
सड़क पर बाहरी
लटकती है इस तरह–
मानो कि आदमी के जनम के पहले से
पृथ्वी की छाती पर
जंगली मैमथ की सूँड़ सूँघ रही हो
हवा के लहरीले सिफ़रों को आज भी
बरगद की घनी-घनी छाँव में
फूटी हुई चूड़ियों की सूनी-सूनी कलाई-सी
सूनी-सूनी गलियों में
ग़रीबों के ठाँव में–
चौराहे पर खड़े हुए
भैरों की सिन्दूरी
गेरुई मूरत के पथरीले व्यंग्य स्मित पर
टेढ़े-मुँह चांद की ऐयारी रोशनी,
तिलिस्मी चांद की राज़-भरी झाइयाँ !!
तजुर्बों का ताबूत
ज़िन्दा यह बरगद
जानता कि भैरों यह कौन है !!
कि भैरों की चट्टानी पीठ पर
पैरों की मज़बूत
पत्थरी-सिन्दूरी ईट पर
भभकते वर्णों के लटकते पोस्टर
ज्वलन्त अक्षर !!

सामने है अंधियाला ताल और
स्याह उसी ताल पर
सँवलायी चांदनी,
समय का घण्टाघर,
निराकार घण्टाघर,
गगन में चुपचाप अनाकार खड़ा है !!
परन्तु, परन्तु…बतलाते
ज़िन्दगी के काँटे ही
कितनी रात बीत गयी

चप्पलों की छपछप,
गली के मुहाने से अजीब-सी आवाज़,
फुसफुसाते हुए शब्द !
जंगल की डालों से गुज़रती हवाओं की सरसर
गली में ज्यों कह जाय
इशारों के आशय,
हवाओं की लहरों के आकार–
किन्हीं ब्रह्मराक्षसों के निराकार
अनाकार
मानो बहस छेड़ दें
बहस जैसे बढ़ जाय
निर्णय पर चली आय
वैसे शब्द बार-बार
गलियों की आत्मा में
बोलते हैं एकाएक
अंधेरे के पेट में से
ज्वालाओं की आँत बाहर निकल आय
वैसे, अरे, शब्दों की धार एक
बिजली के टॉर्च की रोशनी की मार एक
बरगद के खुरदरे अजगरी तने पर
फैल गयी अकस्मात्
बरगद के खुरदरे अजगरी तने पर
फैल गये हाथ दो
मानो ह्रदय में छिपी हुई बातों ने सहसा
अंधेरे से बाहर आ भुजाएँ पसारी हों
फैले गये हाथ दो
चिपका गये पोस्टर
बाँके तिरछे वर्ण और
लाल नीले घनघोर
हड़ताली अक्षर
इन्ही हलचलों के ही कारण तो सहसा
बरगद में पले हुए पंखों की डरी हुई
चौंकी हुई अजीब-सी गन्दी फड़फड़
अंधेरे की आत्मा से करते हुए शिकायत
काँव-काँव करते हुए पक्षियों के जमघट
उड़ने लगे अकस्मात्
मानो अंधेरे के
ह्रदय में सन्देही शंकाओं के पक्षाघात !!
मद्धिम चांदनी में एकाएक एकाएक
खपरैलों पर ठहर गयी
बिल्ली एक चुपचाप
रजनी के निजी गुप्तचरों की प्रतिनिधि
पूँछ उठाये वह
जंगली तेज़
आँख
फैलाये
यमदूत-पुत्री-सी
(सभी देह स्याह, पर
पंजे सिर्फ़ श्वेत और
ख़ून टपकाते हुए नाख़ून)
देखती है मार्जार
चिपकाता कौन है
मकानों की पीठ पर
अहातों की भीत पर
बरगद की अजगरी डालों के फन्दों पर
अंधेरे के कन्धों पर
चिपकाता कौन है ?
चिपकाता कौन है
हड़ताली पोस्टर
बड़े-बड़े अक्षर
बाँके-तिरछे वर्ण और
लम्बे-चौड़े घनघोर
लाल-नीले भयंकर
हड़ताली पोस्टर !!
टेढ़े-मुँह चांद की ऐयारी रोशनी भी ख़ूब है
मकान-मकान घुस लोहे के गज़ों की जाली
के झरोखों को पार कर
लिपे हुए कमरे में
जेल के कपड़े-सी फैली है चांदनी,
दूर-दूर काली-काली
धारियों के बड़े-बड़े चौखट्टों के मोटे-मोटे
कपड़े-सी फैली है
लेटी है जालीदार झरोखे से आयी हुई
जेल सुझाती हुई ऐयारी रोशनी !!
अंधियाले ताल पर
काले घिने पंखों के बार-बार
चक्करों के मंडराते विस्तार
घिना चिमगादड़-दल भटकता है चारों ओर
मानो अहं के अवरुद्ध
अपावन अशुद्ध घेरे में घिरे हुए
नपुंसक पंखों की छटपटाती रफ़्तार
घिना चिमगादड़-दल
भटकता है प्यासा-सा,
बुद्धि की आँखों में
स्वार्थों के शीशे-सा !!

बरगद को किन्तु सब
पता था इतिहास,
कोलतारी सड़क पर खड़े हुए सर्वोच्च
गान्धी के पुतले पर
बैठे हुए आँखों के दो चक्र
यानी कि घुग्घू एक–
तिलक के पुतले पर
बैठे हुए घुग्घू से
बातचीत करते हुए
कहता ही जाता है–
“……मसान में……
मैंने भी सिद्धि की ।
देखो मूठ मार दी
मनुष्यों पर इस तरह……”
तिलक के पुतले पर बैठे हुए घुग्घू ने
देखा कि भयानक लाल मूँठ
काले आसमान में
तैरती-सी धीरे-धीरे जा रही

उद्गार-चिह्नाकार विकराल
तैरता था लाल-लाल !!
देख, उसने कहा कि वाह-वाह
रात के जहाँपनाह
इसीलिए आज-कल
दिल के उजाले में भी अंधेरे की साख है
रात्रि की काँखों में दबी हुई
संस्कृति-पाखी के पंख है सुरक्षित !!
…पी गया आसमान
रात्रि की अंधियाली सच्चाइयाँ घोंट के,
मनुष्यों को मारने के ख़ूब हैं ये टोटके !
गगन में करफ़्यू है,
ज़माने में ज़ोरदार ज़हरीली छिः थूः है !!
सराफ़े में बिजली के बूदम
खम्भों पर लटके हुए मद्धिम
दिमाग़ में धुन्ध है,
चिन्ता है सट्टे की ह्रदय-विनाशिनी !!
रात्रि की काली स्याह
कड़ाही से अकस्मात्
सड़कों पर फैल गयी
सत्यों की मिठाई की चाशनी !!

टेढ़े-मुँह चांद की ऐयारी रोशनी
भीमाकार पुलों के
ठीक नीचे बैठकर,
चोरों-सी उचक्कों-सी
नालों और झरनों के तटों पर
किनारे-किनारे चल,
पानी पर झुके हुए
पेड़ों के नीचे बैठ,
रात-बे-रात वह
मछलियाँ फँसाती है
आवारा मछुओं-सी शोहदों-सी चांदनी
सड़कों के पिछवाड़े
टूटे-फूटे दृश्यों में,
गन्दगी के काले-से नाले के झाग पर
बदमस्त कल्पना-सी फैली थी रात-भर
सेक्स के कष्टों के कवियों के काम-सी !
किंग्सवे में मशहूर
रात की है ज़िन्दगी !
सड़कों की श्रीमान्
भारतीय फिरंगी दुकान,
सुगन्धित प्रकाश में चमचमाता ईमान
रंगीन चमकती चीज़ों के सुरभित
स्पर्शों में
शीशों की सुविशाल झाँइयों के रमणीय
दृश्यों में
बसी थी चांदनी
खूबसूरत अमरीकी मैग्ज़ीन-पृष्ठों-सी
खुली थी,
नंगी-सी नारियों के
उघरे हुए अंगों के
विभिन्न पोज़ों मे
लेटी थी चांदनी
सफे़द
अण्डरवियर-सी, आधुनिक प्रतीकों में
फैली थी
चांदनी !

करफ़्यू नहीं यहाँ, पसन्दगी…सन्दली,
किंग्सवे में मशहूर रात की है ज़िन्दगी

अजी, यह चांदनी भी बड़ी मसखरी है !!
तिमंज़ले की एक
खिड़की में बिल्ली के सफे़द धब्बे-सी
चमकती हुई वह
समेटकर हाथ-पाँव
किसी की ताक में
बैठी हुई चुपचाप
धीरे से उतरती है
रास्तों पर पथों पर;
चढ़ती है छतों पर
गैलरी में घूम और
खपरैलों पर चढ़कर
नीमों की शाखों के सहारे
आंगन में उतरकर
कमरों में हलके-पाँव
देखती है, खोजती है–
शहर के कोनों के तिकोने में छुपी हुई
चांदनी
सड़क के पेड़ों के गुम्बदों पर चढ़कर
महल उलाँघ कर
मुहल्ले पार कर
गलियों की गुहाओं में दबे-पाँव
खुफ़िया सुराग़ में
गुप्तचरी ताक में
जमी हुई खोजती है कौन वह
कन्धों पर अंधेरे के
चिपकाता कौन है
भड़कीले पोस्टर,
लम्बे-चौड़े वर्ण और
बाँके-तिरछे घनघोर
लाल-नीले अक्षर ।

कोलतारी सड़क के बीचों-बीच खड़ी हुई
गान्धी की मूर्ति पर
बैठे हुए घुग्घू ने
गाना शुरु किया,
हिचकी की ताल पर
साँसों ने तब
मर जाना
शुरु किया,
टेलीफ़ून-खम्भों पर थमे हुए तारों ने
सट्टे के ट्रंक-कॉल-सुरों में
थर्राना और झनझनाना शुरु किया !
रात्रि का काला-स्याह
कन-टोप पहने हुए
आसमान-बाबा ने हनुमान-चालीसा
डूबी हुई बानी में गाना शुरु किया ।
मसान के उजाड़
पेड़ों की अंधियाली शाख पर
लाल-लाल लटके हुए
प्रकाश के चीथड़े–
हिलते हुए, डुलते हुए, लपट के पल्लू ।
सचाई के अध-जले मुर्दों की चिताओं की
फटी हुई, फूटी हुई दहक में कवियों ने
बहकती कविताएँ गाना शुरु किया ।
संस्कृति के कुहरीले धुएँ से भूतों के
गोल-गोल मटकों से चेहरों ने
नम्रता के घिघियाते स्वांग में
दुनिया को हाथ जोड़
कहना शुरु किया–
बुद्ध के स्तूप में
मानव के सपने
गड़ गये, गाड़े गये !!
ईसा के पंख सब
झड़ गये, झाड़े गये !!
सत्य की
देवदासी-चोलियाँ उतारी गयी
उघारी गयीं,
सपनों की आँते सब
चीरी गयीं, फाड़ी गयीं !!
बाक़ी सब खोल है,
ज़िन्दगी में झोल है !!
गलियों का सिन्दूरी विकराल
खड़ा हुआ भैरों, किन्तु,
हँस पड़ा ख़तरनाक
चांदनी के चेहरे पर
गलियों की भूरी ख़ाक
उड़ने लगी धूल और
सँवलायी नंगी हुई चाँदनी !

और, उस अँधियाले ताल के उस पार
नगर निहारता-सा खड़ा है पहाड़ एक
लोहे की नभ-चुम्भी शिला का चबूतरा
लोहांगी कहाता है
कि जिसके भव्य शीर्ष पर
बड़ा भारी खण्डहर
खण्डहर के ध्वंसों में बुज़ुर्ग दरख़्त एक
जिसके घने तने पर
लिक्खी है प्रेमियों ने
अपनी याददाश्तें,
लोहांगी में हवाएँ
दरख़्त में घुसकर
पत्तों से फुसफुसाती कहती हैं
नगर की व्यथाएँ
सभाओं की कथाएँ
मोर्चों की तड़प और
मकानों के मोर्चे
मीटिंगों के मर्म-राग
अंगारों से भरी हुई
प्राणों की गर्म राख
गलियों में बसी हुई छायाओं के लोक में
छायाएँ हिलीं कुछ
छायाएँ चली दो
मद्धिम चांदनी में
भैरों के सिन्दूरी भयावने मुख पर
छायीं दो छायाएँ
छरहरी छाइयाँ !!
रात्रि की थाहों में लिपटी हुई साँवली तहों में
ज़िन्दगी का प्रश्नमयी थरथर
थरथराते बेक़ाबू चांदनी के
पल्ले-सी उड़ती है गगन-कंगूरों पर ।
पीपल के पत्तों के कम्प में
चांदनी के चमकते कम्प से
ज़िन्दगी की अकुलायी थाहों के अंचल
उड़ते हैं हवा में !!

गलियों के आगे बढ़
बगल में लिये कुछ
मोटे-मोटे कागज़ों की घनी-घनी भोंगली
लटकाये हाथ में
डिब्बा एक टीन का
डिब्बे में धरे हुए लम्बी-सी कूँची एक
ज़माना नंगे-पैर
कहता मैं पेण्टर
शहर है साथ-साथ
कहता मैं कारीगर–
बरगद की गोल-गोल
हड्डियों की पत्तेदार
उलझनों के ढाँचों में
लटकाओ पोस्टर,
गलियों के अलमस्त
फ़क़ीरों के लहरदार
गीतों से फहराओ
चिपकाओ पोस्टर
कहता है कारीगर ।
मज़े में आते हुए
पेण्टर ने हँसकर कहा–
पोस्टर लगे हैं,
कि ठीक जगह
तड़के ही मज़दूर
पढ़ेंगे घूर-घूर,
रास्ते में खड़े-खड़े लोग-बाग
पढ़ेंगे ज़िन्दगी की
झल्लायी हुई आग !
प्यारे भाई कारीगर,
अगर खींच सकूँ मैं–
हड़ताली पोस्टर पढ़ते हुए
लोगों के रेखा-चित्र,
बड़ा मज़ा आयेगा ।
कत्थई खपरैलों से उठते हुए धुएँ
रंगों में
आसमानी सियाही मिलायी जाय,
सुबह की किरनों के रंगों में
रात के गृह-दीप-प्रकाश को आशाएँ घोलकर
हिम्मतें लायी जायँ,
स्याहियों से आँखें बने
आँखों की पुतली में धधक की लाल-लाल
पाँख बने,
एकाग्र ध्यान-भरी
आँखों की किरनें
पोस्टरों पर गिरे–तब
कहो भाई कैसा हो ?
कारीगर ने साथी के कन्धे पर हाथ रख
कहा तब–
मेरे भी करतब सुनो तुम,
धुएँ से कजलाये
कोठे की भीत पर
बाँस की तीली की लेखनी से लिखी थी
राम-कथा व्यथा की
कि आज भी जो सत्य है
लेकिन, भाई, कहाँ अब वक़्त है !!
तसवीरें बनाने की
इच्छा अभी बाक़ी है–
ज़िन्दगी भूरी ही नहीं, वह ख़ाकी है ।
ज़माने ने नगर के कन्धे पर हाथ रख
कह दिया साफ़-साफ़
पैरों के नखों से या डण्डे की नोक से
धरती की धूल में भी रेखाएँ खींचकर
तसवीरें बनाती हैं
बशर्ते कि ज़िन्दगी के चित्र-सी
बनाने का चाव हो
श्रद्धा हो, भाव हो ।
कारीगर ने हँसकर
बगल में खींचकर पेण्टर से कहा, भाई
चित्र बनाते वक़्त
सब स्वार्थ त्यागे जायँ,
अंधेरे से भरे हुए
ज़ीने की सीढ़ियाँ चढ़ती-उतरती जो
अभिलाषा–अन्ध है
ऊपर के कमरे सब अपने लिए बन्द हैं
अपने लिए नहीं वे !!
ज़माने ने नगर से यह कहा कि
ग़लत है यह, भ्रम है
हमारा अधिकार सम्मिलित श्रम और
छीनने का दम है ।
फ़िलहाल तसवीरें
इस समय हम
नहीं बना पायेंगे
अलबत्ता पोस्टर हम लगा जायेंगे ।
हम धधकायेंगे ।
मानो या मानो मत
आज तो चन्द्र है, सविता है,
पोस्टर ही कविता है !!
वेदना के रक्त से लिखे गये
लाल-लाल घनघोर
धधकते पोस्टर
गलियों के कानों में बोलते हैं
धड़कती छाती की प्यार-भरी गरमी में
भाफ-बने आँसू के ख़ूँख़ार अक्षर !!
चटाख से लगी हुई
रायफ़ली गोली के धड़ाकों से टकरा
प्रतिरोधी अक्षर
ज़माने के पैग़म्बर
टूटता आसमान थामते हैं कन्धों पर
हड़ताली पोस्टर
कहते हैं पोस्टर–
आदमी की दर्द-भरी गहरी पुकार सुन
पड़ता है दौड़ जो
आदमी है वह ख़ूब
जैसे तुम भी आदमी
वैसे मैं भी आदमी,
बूढ़ी माँ के झुर्रीदार
चेहरे पर छाये हुए
आँखों में डूबे हुए
ज़िन्दगी के तजुर्बात
बोलते हैं एक साथ
जैसे तुम भी आदमी
वैसे मैं भी आदमी,
चिल्लाते हैं पोस्टर ।
धरती का नीला पल्ला काँपता है
यानी आसमान काँपता है,
आदमी के ह्रदय में करुणा कि रिमझिम,
काली इस झड़ी में
विचारों की विक्षोभी तडित् कराहती
क्रोध की गुहाओं का मुँह खोले
शक्ति के पहाड़ दहाड़ते
काली इस झड़ी में वेदना की तडित् कराहती
मदद के लिए अब,
करुणा के रोंगटों में सन्नाटा
दौड़ पड़ता आदमी,
व आदमी के दौड़ने के साथ-साथ
दौड़ता जहान
और दौड़ पड़ता आसमान !!

मुहल्ले के मुहाने के उस पार
बहस छिड़ी हुई है,
पोस्टर पहने हुए
बरगद की शाखें ढीठ
पोस्टर धारण किये
भैंरों की कड़ी पीठ
भैंरों और बरगद में बहस खड़ी हुई है
ज़ोरदार जिरह कि कितना समय लगेगा
सुबह होगी कब और
मुश्किल होगी दूर कब
समय का कण-कण
गगन की कालिमा से
बूंद-बूंद चू रहा
तडित्-उजाला बन !!

लकड़ी का रावण – गजानन माधव मुक्तिबोध

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गजानन माधव मुक्तिबोध को प्रगतिशील कविता और नयी कविता के बीच का एक सेतु भी माना जाता है. प्रस्तुत है उनकी एक कविता – “लकड़ी का रावण”.

Gajanan Madhav Muktibodh

दीखता
त्रिकोण इस पर्वत-शिखर से
अनाम, अरूप और अनाकार
असीम एक कुहरा,
भस्मीला अन्धकार
फैला है कटे-पिटे पहाड़ी प्रसारों पर;
लटकती हैं मटमैली
ऊँची-ऊँची लहरें
मैदानों पर सभी ओर

लेकिन उस कुहरे से बहुत दूर
ऊपर उठ
पर्वतीय ऊर्ध्वमुखी नोक एक
मुक्त और समुत्तुंग !!

उस शैल-शिखर पर
खड़ा हुआ दीखता है एक द्योः पिता भव्य
निःसंग
ध्यान-मग्न ब्रह्म…
मैं ही वह विराट् पुरुष हूँ
सर्व-तन्त्र, स्वतन्त्र, सत्-चित् !
मेरे इन अनाकार कन्धों पर विराजमान
खड़ा है सुनील
शून्य
रवि-चन्द्र-तारा-द्युति-मण्डलों के परे तक ।

दोनों हम
अर्थात्
मैं व शून्य
देख रहे…दूर…दूर…दूर तक
फैला हुआ
मटमैली जड़ीभूत परतों का
लहरीला कम्बल ओर-छोर-हीन
रहा ढाँक
कन्दरा-गुहाओं को, तालों को
वृक्षों के मैदानी दृश्यों के प्रसार को

अकस्मात्
दोनों हम
मैं वह शून्य
देखते कि कम्बल की कुहरीली लहरें
हिल रही, मुड़ रही !!
क्या यह सच,
कम्बल के भीतर है कोई जो
करवट बदलता-सा लग रहा ?
आन्दोलन ?
नहीं, नहीं मेरी ही आँखों का भ्रम है
फिर भी उस आर-पार फैले हुए
कुहरे में लहरीला असंयम !!
हाय ! हाय !

क्या है यह !! मेरी ही गहरी उसाँस में
कौन-सा है नया भाव ?
क्रमशः
कुहरे की लहरीली सलवटें
मुड़ रही, जुड़ रही,
आपस में गुँथ रही !!
क्या है यह !!
यर क्या मज़ाक है,
अरूर अनाम इस
कुहरे की लहरों से अगनित
कइ आकृति-रूप
बन रहे, बनते-से दीखते !!
कुहरीले भाफ भरे चहरे
अशंक, असंख्य व उग्र…
अजीब है,
अजीबोगरीब है
घटना का मोड़ यह ।

अचानक
भीतर के अपने से गिरा कुछ,
खसा कुछ,
नसें ढीली पड़ रही
कमज़ोरी बढ़ रही; सहसा
आतंकित हम सब
अभी तक
समुत्तुंग शिखरों पर रहकर
सुरक्षित हम थे
जीवन की प्रकाशित कीर्ति के क्रम थे,
अहं-हुंकृति के ही…यम-नियम थे,
अब क्या हुआ यह
दुःसह !!
सामने हमारे
घनीभूत कुहरे के लक्ष-मुख
लक्ष-वक्ष, शत-लक्ष-बाहु ये रूप, अरे
लगते हैं घोरतर ।

जी नहीं,
वे सिर्फ कुहरा ही नहीं है,
काले-काले पत्थर
व काले-काले लोहे के लगते वे लोग ।

हाय, हाय, कुहरे की घनीभूत प्रतिमा या
भरमाया मेरा मन,
उनके वे स्थूल हाथ
मनमाने बलशाली
लगते हैं ख़तरनाक;
जाने-पहचाने-से लगते हैं मुख वे ।

डरता हूँ,
उनमें से कोई, हाय
सहसा न चढ़ जाय
उत्तुंग शिखर की सर्वोच्च स्थिति पर,
पत्थर व लोहे के रंग का यह कुहरा !

बढ़ न जायँ
छा न जायँ
मेरी इस अद्वितीय
सत्ता के शिखरों पर स्वर्णाभ,
हमला न कर बैठे ख़तरनाक
कुहरे के जनतन्त्री
वानर ये, नर ये !!
समुदाय, भीड़
डार्क मासेज़ ये मॉब हैं,
हलचलें गड़बड़,
नीचे थे तब तक
फ़ासलों में खोये हुए कहीं दूर, पार थे;
कुहरे के घने-घने श्याम प्रसार थे ।
अब यह लंगूर हैं
हाय हाय
शिखरस्थ मुझको ये छू न जायँ !!

आसमानी शमशीरी, बिजलियों,
मेरी इन भुजाओं में बन जाओ
ब्रह्म-शक्ति !
पुच्छल ताराओं,
टूट पड़ो बरसो
कुहरे के रंग वाले वानरों के चहरे
विकृत, असभ्य और भ्रष्ट हैं…
प्रहार करो उन पर,
कर डालो संहार !!

अरे, अरे !
नभचुम्बी शिखरों पर हमारे
बढ़ते ही जा रहे
जा रहे चढ़ते
हाय, हाय,
सब ओर से घिरा हूँ ।

सब तरफ़ अकेला,
शिखर पर खड़ा हूँ ।
लक्ष-मुख दानव-सा, लक्ष-हस्त देव सा ।
परन्तु, यह क्या
आत्म-प्रतीति भी धोखा ही दे रही !!
स्वयं को ही लगता हूँ
बाँस के व कागज़ के पुट्ठे के बने हुए
महाकाय रावण-सा हास्यप्रद
भयंकर !!

हाय, हाय,
उग्रतर हो रहा चेहरों का समुदाय
और कि भाग नहीं पाता मैं
हिल नहीं पाता हूँ
मैं मन्त्र-कीलि-सा, भूमि में गड़ा-सा,
जड़ खड़ा हूँ
अब गिरा, तब गिरा
इसी पल कि उल पल…

डूबता चांद, कब डूबेगा – गजानन माधव मुक्तिबोध

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गजानन माधव मुक्तिबोध को प्रगतिशील कविता और नयी कविता के बीच का एक सेतु भी माना जाता है. प्रस्तुत है उनकी एक कविता – “डूबता चांद, कब डूबेगा”.

Gajanan Madhav Muktibodh

अंधियारे मैदान के इन सुनसानों में
बिल्ली की, बाघों की आँखों-सी चमक रहीं

ये राग-द्वेष, ईर्ष्या, भय, मत्सर की आँखें,

हरियातूता की ज़हरीली-नीली-नीली

ज्वाला, कुत्सा की आँखों में ।

ईर्ष्या-रूपी औरत की मूँछ निकल आयी ।

इस द्वेष-पुरुष के दो हाथों के

चार और पंजे निकले ।

मत्सर को ठस्सेदार तेज़ दो बौद्धिक सींग निकल आये ।

स्वार्थी भावों की लाल

विक्षुब्ध चींटियों को सहसा

अब उजले पर कितने निकले ।

अंधियारे बिल से झाँक रहे

सर्पों की आँखें तेज़ हुईं ।

अब अहंकार उद्विग्न हुआ,

मानव के सब कपड़े उतार

वह रीछ एकदम नग्न हुआ ।

ठूँठों पर बैठे घुग्घू-दल

के नेत्र-चक्र घूमने लगे

इस बियाबान के नभ में सब

नक्षत्र वक्र घूमने लगे ।

कुछ ऐसी चलने लगी हवा,

अपनी अपराधी कन्या की चिन्ता में माता-सी बेकल

उद्विग्न रात

के हाथों से

अंधियारे नभ की राहों पर

है गिरी छूटकर

गर्भपात की तेज़ दवा

बीमार समाजों की जो थी ।

दुर्घटना से ज्वाला काँपी कन्दीलों में

अंधियारे कमरों की मद्धिम पीली लौ में,

जब नाच रही भीतों पर भुतही छायाएँ

आशंका की–

गहरे कराहते गर्भों से

मृत बालक ये कितने जन्मे,

बीमार समाजों के घर में !

बीमार समाजों के घर में

जितने भी हल है प्रश्नों के

वे हल, जीने के पूर्व मरे । उनके प्रेतों के आस-पास

दार्शनिक दुखों की गिद्ध-सभा

आँखों में काले प्रश्न-भरे बैठी गुम-सुम ।

शोषण के वीर्य-बीज से अब जनमे दुर्दम

दो सिर के, चार पैर वाले राक्षस-बालक ।

विद्रूप सभ्यताओं के लोभी संचालक ।

मानव की आत्मा से सहसा कुछ दानव और निकल आये !

मानव मस्तक में से निकले

कुछ ब्रह्म-राक्षसों ने पहनी

गान्धीजी की टूटी चप्पल

हरहरा उठा यह पीपल तब

हँस पड़ा ठठाकर, गर्जन कर, गाँव का कुआँ ।

तब दूर, सुनाई दिया शब्द, ‘हुआँ’ ‘हुआँ’ !

त्यागे मन्दिर के अध-टूटे गुम्बद पर स्थित

वीरान प्रदेशों का घुग्घू

चुपचाप, तेज़, देखता रहा–

झरने के पथरीले तट पर

रात के अंधेरे में धीरे

चुपचाप, कौन वह आता है, या आती है,

उसके पीछे–

पीला-पीला मद्धिम कोई कन्दील

छिपाये धोती में (डर किरणों से)

चुपचाप कौन वह आता है या आती है–

मानो सपने के भीतर सपना आता हो,

सपने में कोई जैसे पीछे से टोंके,

फिर, कहे कि ऐसा कर डालो !

फिर, स्वयं देखता खड़ा रहे

औ’ सुना करे वीराने की आहटें, स्वयं ही सन्नाकर

रह जाये अपने को खो के !

त्यागे मन्दिर के अध-टूटे गुम्बद पर स्थित

घुग्घू को आँखों को अब तक

कोई भी धोखा नहीं हुआ,

उसने देखा–

झरने के तट पर रोता है कोई बालक,

अंधियारे में काले सियार-से घूम रहे

मैदान सूँघते हुए हवाओं के झोंके ।

झरने के पथरीले तट पर

सो चुका, अरे, किन-किन करके, कुछ रो-रो के

चिथड़ों में सद्योजात एक बालक सुन्दर ।

आत्मा-रूपी माता ने जाने कब त्यागा

जीवन का आत्मज सत्य न जाने किसके डर ?

माँ की आँखों में भय का कितना बीहड़पन

जब वन्य तेंदुओं की आँखों से दमक उठे

गुरु शुक्र और तारे नभ में

जब लाल बबर फ़ौजी-जैसा

जो ख़ूनी चेहरा चमक उठा

वह चांद कि जिसकी नज़रों से

यों बचा-बचा,

यदि आत्मज सत्य यहाँ रक्खे झरने के तट,

अनुभव शिशु की रक्षा होगी ।

ले इसी तरह के भाव अनगिनत लोगों ने

अपने ज़िन्दा सत्यों का गला बचाने को

अपना सब अनुभव छिपा लिया,

हाँ में हाँ, नहीं नहीं में भर

अपने को जग में खपा लिया !

चुपचाप सो रहा था मैं अपने घर में जब,

सहसा जगकर, चट क़दम बढ़ा,

अंधियारे के सुनसान पथों पर निकल पड़ा,

बहते झरने के तट आया

देखा–बालक ! अनुभव-बालक !!

चट, उठा लिया अपनी गोदी में,

वापस ख़ुश-ख़ुश घर आया !

अपने अंधियारे कमरे में

आँखें फाड़े मैने देखा मन के मन में

जाने कितने कारावासी वसुदेव

स्वयं अपने कर में, शिशु-आत्मज ले,

बरसाती रातों में निकले,

धँस रहे अंधेरे जंगल में

विक्षुब्ध पूर में यमुना के

अति-दूर, अरे, उस नन्द-ग्राम की ओर चले ।

जाने किसके डर स्थानान्तरित कर रहे वे

जीवन के आत्मज सत्यों को,

किस महाकस से भय खाकर गहरा-गहरा :

भय से अभ्यस्त कि वे उतनी

लेकिन परवाह नहीं करते !!

इसलिए, कंस के घण्टाघर

में ठीक रात के बारह पर

बन्दूक़ थमा दानव-हाथों,

अब दुर्जन ने बदला पहरा !

पर इस नगरी के मरे हुए

जीवन के काले जल की तह

के नीचे सतहों में चुप

जो दबे पाँव चलती रहतीं

जल-धाराएँ ताज़ी-ताज़ी निर्भय, उद्धत

तल में झींरे वे अप्रतिहत !

कानाफूसी से व्याप्त बहुत हो जाती है,

इन धाराओं में बात बहुत हो जाती है ।

आते-जाते, पथ में, दो शब्द फुसफुसाते

इनको, घर आते, रात बहुत हो जाती है ।

एक ने कहा–

अम्बर के पलने से उतार रवि–राजपुत्र

ढाँककर साँवले कपड़ों में

रख दिशा-टोकरी में उसको

रजनी-रूपी पन्ना दाई

अपने से जन्मा पुत्र-चन्द्र फिर सुला गगन के पलने में

चुपचाप टोकरी सिर पर रख

रवि-राजपुत्र ले खिसक गयी

पुर के बाहर पन्ना दाई ।

यह रात-मात्र उसकी छाया ।

घबराहट जो कि हवा में है

इसलिए कि अब

शशि की हत्या का क्षण आया ।

अन्य ने कहा–

घन तम में लाल अलावों की

नाचती हुई ज्वालाओं में

मृद चमक रहे जन-जन मुख पर

आलोकित ये विचार है अब,

ऐसे कुछ समाचार है अब

यह घटना बार-बार होगी,

शोषण के बन्दी-गृह-जन में

जीवन की तीव्र धार होगी !

और ने कहा–

कारा के चौकीदार कुशल

चुपचाप फलों के बक्से में

युगवीर शिवाजी को भरते

जो वेश बदल, जाता दक्षिण को ओर निकल !

एक ने कहा–

बन्दूक़ों के कुन्दों पर स्याह अंगूठों ने

लोहे के घोड़े खड़े किये,

पिस्तौलों ने अपने-अपने मुँह बड़े किये,

अस्त्रों को पकड़े कलाइयों

की मोटी नस हाँफने लगी

एकाग्र निशाना बने ध्यान के माथे पर

फिर मोटी नसें कसी, उभरीं

पर पैरों में काँपने लगी ।

लोहे की नालों की टापें गूँजने लगी ।

अम्बर के हाथ-पैर फूले,

काल की जड़ें सूजने लगीं ।

झाड़ों की दाढ़ी में फन्दे झूलने लगे,

डालों से मानव-देह बंधे झूलने लगे ।

गलियों-गलियों हो गयी मौत की गस्त शुरु,

पागल-आँखों, सपने सियाह बदमस्त शुरु !

अपने ही कृत्यों-डरी

रीढ़ हड्डी

पिचपिची हुई,

वह मरे साँप के तन-सी ही लुचलुची हुई ।

अन्य ने कहा–

दुर्दान्त ऐतिहासिक स्पन्दन

के लाल रक्त से लिखते तुलसीदास आज

अपनी पीड़ा की रामायण,

उस रामायण की पीड़ा के आलोक-वलय

में मुख-मण्डल माँ का झुर्रियों-भरा

उभरा-निखरा,

उर-कष्ट-भरी स्मित-हँसी

कि ज्यों आहत पक्षी

रक्तांकित पंख फड़फड़ाती

मेरे उर की शाखाओं पर आ बैठी है

कराह दाबे गहरी

(जिससे कि न मैं जाऊँ घबरा)

माँ की जीवन-भर की ठिठुरन,

मेरे भीतर

गहरी आँखोंवाला सचेत

बन गयी दर्द ।

उसकी जर्जर बदरंग साड़ी का रंग

मेरे जीवन में पूरा फैल गया ।

मुझको, तुमको

उसकी आस्था का विक्षोभी

गहरी धक्का

विक्षुब्ध ज़िन्दगी की सड़कों पर ठेल गया ।

भोली पुकारती आँखें वे

मुझको निहारती बैठी हैं ।

और ने कहा–

वह चादर ओढ़, दबा ठिठुरन, मेरे साथी !

वह दूर-दूर बीहड़ में भी,

बीहड़ के अन्धकार में भी,

जब नहीं सूझ कुछ पड़ता है,

जब अंधियारा समेट बरगद

तम की पहाड़ियों-से दिखते,

जब भाव-विचार स्वयं के भी

तम-भरी झाड़ियों-से दिखते ।

जब तारे सिर्फ़ साथ देते

पर नहीं हाथ देते पल-भर

तब, कण्ठ मुक्त कर, मित्र-स्वजन

नित नभ-चुम्बी गीतों द्वारा

अपना सक्रिय अस्तित्व जताते एक-दूसरे को

वे भूल और फिर से सुधार के रास्ते से

अपना व्यक्तित्व बनाते हैं।

तब हम भी अपने अनुभव के सारांशों को

उन तक पहुँचाते हैं, जिसमें

जिस पहुँचाने के द्वारा, हम सब साथी मिल

दण्डक वन में से लंका का

पथ खोज निकाल सकें प्रतिपल

धीरे-धीरे ही सही, बढ़ उत्थानों में अभियानों में

अंधियारे मैदानों के इन सुनसानों में

रात की शून्यताओं का गहरापन ओढ़े

ज़्यादा मोटे, ज़्यादा ऊँचे, ज़्यादा ऐंठे

भारी-भरकम लगने वाले

इन क़िले-कंगूरों-छज्जों-गुम्बद-मीनारों

पर, क्षितिज-गुहा-मांद में से निकल

तिरछा झपटा,

जो गंजी साफ़-सफ़ेद खोपड़ीवाला चांद

कुतर्की वह

सिर-फिरे किसी ज्यामिति-शाली-सा है।

नीले-पीले में घुले सफ़ेद उजाले की

आड़ी-तिरछी लम्बी-चौड़ी

रेखाओं से

इन अन्धकार-नगरी की बढ़ी हुई

आकृति के खींच खड़े नक्षे

वह नये नमूने बना रहा

उस वक़्त हवाओं में अजीब थर्राहट-सी

मैं उसको सुनता हुआ,

बढ़ रहा हूँ आगे

चौराहे पर

प्राचीन किसी योद्धा की ऊँची स्फटिक मूर्ति,

जिस पर असंग चमचमा रही है

राख चांदनी की अजीब

उस हिमीभूत सौन्दर्य-दीप्ती

में पुण्य कीर्ति

की वह पाषाणी अभिव्यक्ति

कुछ हिली।

उस स्फटिक मूर्ति के पास

देखता हूँ कि चल रही साँस

मेरी उसकी।

वे होंठ हिले

वे होंठ हँसे

फिर देखा बहुत ध्यान से तब

भभके अक्षर!!

वे लाल-लाल नीले-से स्वर

बाँके टेढ़े जो लटक रहे

उसके चबूतरे पर, धधके!!

मेरी आँखों में धूमकेतु नाचे,

उल्काओं की पंक्तियाँ काव्य बन गयीं

घोषणा बनी!!

चांदनी निखर हो उठी

उस स्फटिक मूर्ति पर, उल्काओं पर

मेरे चेहरे पर!!

पाषाण मूर्ति के स्फटिक अधर

पर वक्र-स्मित

कि रेखाएँ उसकी निहारती हैं

उन रेखाओं में सहसा मैं बंध जाता हूँ

मेरे चेहरे पर नभोगन्धमय एक भव्यता-सी।

धीरे-धीरे मैं क़दम बढ़ा

गलियों की ओर मुड़ा

जाता हूँ ज्वलत् शब्द-रेखा

दीवारों पर, चांदनी-धुंधलके में भभकी

वह कल होनेवाली घटनाओं की कविता

जी में उमगी!!

तब अन्धकार-गलियों की

गहरी मुस्कराहट

के लम्बे-लम्बे गर्त-टीले

मेरे पीले चेहरे पर सहसा उभर उठे!!

यों हर्षोत्फुल्ल ताज़गी ले

मैं घर में घुसता हूँ कि तभी

सामने खड़ी स्त्री कहती है–

“अपनी छायाएँ सभी तरफ़

हिल-डोल-रहीं,

ममता मायाएँ सभी तरफ़

मिल बोल रहीं,

हम कहाँ नहीं, हम जगह-जगह

हम यहाँ-वहाँ,

माना कि हवा में थर्राता गाना भुतहा,

हम सक्रिय हैं।”

मेरे मुख पर

मुसकानों के आन्दोलन में

बोलती नहीं, पर डोल रही

शब्दों की तीखी तड़ित्

नाच उठती, केवल प्रकाश-रेखा बनकर!

अपनी खिड़की से देख रहे हैं हम दोनों

डूबता चांद, कब डूबेगा!!

ब्रह्मराक्षस – गजानन माधव मुक्तिबोध

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गजानन माधव मुक्तिबोध को प्रगतिशील कविता और नयी कविता के बीच का एक सेतु भी माना जाता है. प्रस्तुत है उनकी एक कविता – “ब्रह्मराक्षस”.

Gajanan Madhav Muktibodh

शहर के उस ओर खंडहर की तरफ़
परित्यक्त सूनी बावड़ी
के भीतरी
ठण्डे अंधेरे में
बसी गहराइयाँ जल की…
सीढ़ियाँ डूबी अनेकों
उस पुराने घिरे पानी में…
समझ में आ न सकता हो
कि जैसे बात का आधार
लेकिन बात गहरी हो।

बावड़ी को घेर
डालें खूब उलझी हैं,
खड़े हैं मौन औदुम्बर।
व शाखों पर
लटकते घुग्घुओं के घोंसले
परित्यक्त भूरे गोल।
विद्युत शत पुण्यों का आभास
जंगली हरी कच्ची गंध में बसकर
हवा में तैर
बनता है गहन संदेह
अनजानी किसी बीती हुई उस श्रेष्ठता का जो कि
दिल में एक खटके सी लगी रहती।

बावड़ी की इन मुंडेरों पर
मनोहर हरी कुहनी टेक
बैठी है टगर
ले पुष्प तारे-श्वेत

उसके पास
लाल फूलों का लहकता झौंर–
मेरी वह कन्हेर…
वह बुलाती एक खतरे की तरफ जिस ओर
अंधियारा खुला मुँह बावड़ी का
शून्य अम्बर ताकता है।

बावड़ी की उन गहराइयों में शून्य
ब्रह्मराक्षस एक पैठा है,
व भीतर से उमड़ती गूँज की भी गूँज,
हड़बड़ाहट शब्द पागल से।
गहन अनुमानिता
तन की मलिनता
दूर करने के लिए प्रतिपल
पाप छाया दूर करने के लिए, दिन-रात
स्वच्छ करने–
ब्रह्मराक्षस
घिस रहा है देह
हाथ के पंजे बराबर,
बाँह-छाती-मुँह छपाछप
खूब करते साफ़,
फिर भी मैल
फिर भी मैल!!

और… होठों से
अनोखा स्तोत्र कोई क्रुद्ध मंत्रोच्चार,
अथवा शुद्ध संस्कृत गालियों का ज्वार,
मस्तक की लकीरें
बुन रहीं
आलोचनाओं के चमकते तार!!
उस अखण्ड स्नान का पागल प्रवाह….
प्राण में संवेदना है स्याह!!

किन्तु, गहरी बावड़ी
की भीतरी दीवार पर
तिरछी गिरी रवि-रश्मि
के उड़ते हुए परमाणु, जब
तल तक पहुँचते हैं कभी
तब ब्रह्मराक्षस समझता है, सूर्य ने
झुककर नमस्ते कर दिया।

पथ भूलकर जब चांदनी
की किरन टकराये
कहीं दीवार पर,
तब ब्रह्मराक्षस समझता है
वन्दना की चांदनी ने
ज्ञान गुरू माना उसे।

अति प्रफुल्लित कण्टकित तन-मन वही
करता रहा अनुभव कि नभ ने भी
विनत हो मान ली है श्रेष्ठता उसकी!!

और तब दुगुने भयानक ओज से
पहचान वाला मन
सुमेरी-बेबिलोनी जन-कथाओं से
मधुर वैदिक ऋचाओं तक
व तब से आज तक के सूत्र छन्दस्, मन्त्र, थियोरम,
सब प्रेमियों तक
कि मार्क्स, एंजेल्स, रसेल, टॉएन्बी
कि हीडेग्गर व स्पेंग्लर, सार्त्र, गाँधी भी
सभी के सिद्ध-अंतों का
नया व्याख्यान करता वह
नहाता ब्रह्मराक्षस, श्याम
प्राक्तन बावड़ी की
उन घनी गहराईयों में शून्य।

……ये गरजती, गूँजती, आन्दोलिता
गहराईयों से उठ रही ध्वनियाँ, अतः
उद्भ्रान्त शब्दों के नये आवर्त में
हर शब्द निज प्रति शब्द को भी काटता,
वह रूप अपने बिम्ब से भी जूझ
विकृताकार-कृति
है बन रहा
ध्वनि लड़ रही अपनी प्रतिध्वनि से यहाँ

बावड़ी की इन मुंडेरों पर
मनोहर हरी कुहनी टेक सुनते हैं
टगर के पुष्प-तारे श्वेत
वे ध्वनियाँ!
सुनते हैं करोंदों के सुकोमल फूल
सुनता है उन्हे प्राचीन ओदुम्बर
सुन रहा हूँ मैं वही
पागल प्रतीकों में कही जाती हुई
वह ट्रेजिडी
जो बावड़ी में अड़ गयी।

x x x

खूब ऊँचा एक जीना साँवला
उसकी अंधेरी सीढ़ियाँ…
वे एक आभ्यंतर निराले लोक की।
एक चढ़ना औ’ उतरना,
पुनः चढ़ना औ’ लुढ़कना,
मोच पैरों में
व छाती पर अनेकों घाव।
बुरे-अच्छे-बीच का संघर्ष
वे भी उग्रतर
अच्छे व उससे अधिक अच्छे बीच का संगर
गहन किंचित सफलता,
अति भव्य असफलता
…अतिरेकवादी पूर्णता
की व्यथाएँ बहुत प्यारी हैं…
ज्यामितिक संगति-गणित
की दृष्टि के कृत
भव्य नैतिक मान
आत्मचेतन सूक्ष्म नैतिक मान…
…अतिरेकवादी पूर्णता की तुष्टि करना
कब रहा आसान
मानवी अंतर्कथाएँ बहुत प्यारी हैं!!

रवि निकलता
लाल चिन्ता की रुधिर-सरिता
प्रवाहित कर दीवारों पर,
उदित होता चन्द्र
व्रण पर बांध देता
श्वेत-धौली पट्टियाँ
उद्विग्न भालों पर
सितारे आसमानी छोर पर फैले हुए
अनगिन दशमलव से
दशमलव-बिन्दुओं के सर्वतः
पसरे हुए उलझे गणित मैदान में
मारा गया, वह काम आया,
और वह पसरा पड़ा है…
वक्ष-बाँहें खुली फैलीं
एक शोधक की।

व्यक्तित्व वह कोमल स्फटिक प्रासाद-सा,
प्रासाद में जीना
व जीने की अकेली सीढ़ियाँ
चढ़ना बहुत मुश्किल रहा।
वे भाव-संगत तर्क-संगत
कार्य सामंजस्य-योजित
समीकरणों के गणित की सीढ़ियाँ
हम छोड़ दें उसके लिए।
उस भाव तर्क व कार्य-सामंजस्य-योजन-
शोध में
सब पण्डितों, सब चिन्तकों के पास
वह गुरू प्राप्त करने के लिए
भटका!!

किन्तु युग बदला व आया कीर्ति-व्यवसायी
…लाभकारी कार्य में से धन,
व धन में से हृदय-मन,
और, धन-अभिभूत अन्तःकरण में से
सत्य की झाईं
निरन्तर चिलचिलाती थी।

आत्मचेतस् किन्तु इस
व्यक्तित्व में थी प्राणमय अनबन…
विश्वचेतस् बे-बनाव!!
महत्ता के चरण में था
विषादाकुल मन!
मेरा उसी से उन दिनों होता मिलन यदि
तो व्यथा उसकी स्वयं जीकर
बताता मैं उसे उसका स्वयं का मूल्य
उसकी महत्ता!
व उस महत्ता का
हम सरीखों के लिए उपयोग,
उस आन्तरिकता का बताता मैं महत्व!!

पिस गया वह भीतरी
औ’ बाहरी दो कठिन पाटों बीच,
ऐसी ट्रेजिडी है नीच!!

बावड़ी में वह स्वयं
पागल प्रतीकों में निरन्तर कह रहा
वह कोठरी में किस तरह
अपना गणित करता रहा
औ’ मर गया…
वह सघन झाड़ी के कँटीले
तम-विवर में
मरे पक्षी-सा
विदा ही हो गया
वह ज्योति अनजानी सदा को सो गयी
यह क्यों हुआ!
क्यों यह हुआ!!
मैं ब्रह्मराक्षस का सजल-उर शिष्य
होना चाहता
जिससे कि उसका वह अधूरा कार्य,
उसकी वेदना का स्रोत
संगत पूर्ण निष्कर्षों तलक
पहुँचा सकूँ।

पता नहीं – गजानन माधव मुक्तिबोध

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गजानन माधव मुक्तिबोध को प्रगतिशील कविता और नयी कविता के बीच का एक सेतु भी माना जाता है. प्रस्तुत है उनकी एक कविता – “पता नहीं “.

Gajanan Madhav Muktibodh

पता नहीं कब, कौन, कहाँ किस ओर मिले

किस साँझ मिले, किस सुबह मिले!!

यह राह ज़िन्दगी की

जिससे जिस जगह मिले

है ठीक वही, बस वही अहाते मेंहदी के

जिनके भीतर

है कोई घर

बाहर प्रसन्न पीली कनेर

बरगद ऊँचा, ज़मीन गीली

मन जिन्हें देख कल्पना करेगा जाने क्या!!

तब बैठ एक

गम्भीर वृक्ष के तले

टटोलो मन, जिससे जिस छोर मिले,

कर अपने-अपने तप्त अनुभवों की तुलना

घुलना मिलना!!

यह सही है कि चिलचिला रहे फासले,

तेज़ दुपहर भूरी

सब ओर गरम धार-सा रेंगता चला

काल बाँका-तिरछा;

पर, हाथ तुम्हारे में जब भी मित्रता का हाथ

फैलेगी बरगद-छाँह वही

गहरी-गहरी सपनीली-सी

जिसमें खुलकर सामने दिखेगी उरस्-स्पृशा

स्वर्गीय उषा

लाखों आँखों से, गहरी अन्तःकरण तृषा

तुमको निहारती बैठेगी

आत्मीय और इतनी प्रसन्न,

मानव के प्रति, मानव के

जी की पुकार
जितनी अनन्य!

लाखों आँखों से तुम्हें देखती बैठेगी

वह भव्य तृषा

इतने समीप

ज्यों लालीभरा पास बैठा हो आसमान

आँचल फैला,

अपनेपन की प्रकाश-वर्षा

में रुधिर-स्नात हँसता समुद्र

अपनी गम्भीरता के विरुद्ध चंचल होगा।

मुख है कि मात्र आँखें है वे आलोकभरी,

जो सतत तुम्हारी थाह लिए होतीं गहरी,

इतनी गहरी

कि तुम्हारी थाहों में अजीब हलचल,

मानो अनजाने रत्नों की अनपहचानी-सी चोरी में

धर लिए गये,

निज में बसने, कस लिए गए।

तब तुम्हें लगेगा अकस्मात्,

………..

ले प्रतिभाओं का सार, स्फुलिंगों का समूह

सबके मन का

जो बना है एक अग्नि-व्यूह

अन्तस्तल में,

उस पर जो छायी हैं ठण्डी

प्रस्तर-सतहें

सहसा काँपी, तड़कीं, टूटीं

औ’ भीतर का वह ज्वलत् कोष

ही निकल पड़ा !!

उत्कलित हुआ प्रज्वलित कमल !!

यह कैसी घटना है…

कि स्वप्न की रचना है।

उस कमल-कोष के पराग-स्तर

पर खड़ा हुआ

सहसा होता प्रकट एक

वह शक्ति-पुरुष

जो दोनों हाथों आसमान थामता हुआ

आता समीप अत्यन्त निकट

आतुर उत्कट

तुमको कन्धे पर बिठला ले जाने किस ओर

न जाने कहाँ व कितनी दूर !!

फिर वही यात्रा सुदूर की,

फिर वही भटकती हुई खोज भरपूर की,

कि वही आत्मचेतस् अन्तःसम्भावना,

…जाने किन खतरों में जूझे ज़िन्दगी !!

अपनी धकधक

में दर्दीले फैले-फैलेपन की मिठास,

या निःस्वात्मक विकास का युग

जिसकी मानव गति को सुनकर

तुम दौड़ोगे प्रत्येक व्यक्ति के

चरण-तले जनपथ बनकर !!

वे आस्थाएँ तुमको दरिद्र करवायेंगी

कि दैन्य ही भोगोगे

पर, तुम अनन्य होगे,

प्रसन्न होगे !!

आत्मीय एक छवि तुम्हें नित्य भटकायेगी

जिस जगह, जहाँ जो छोर मिले

ले जाएगी…

…पता नहीं, कब, कौन, कहाँ, किस ओर मिले।

शून्य – गजानन माधव मुक्तिबोध

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गजानन माधव मुक्तिबोध को प्रगतिशील कविता और नयी कविता के बीच का एक सेतु भी माना जाता है. प्रस्तुत है उनकी एक कविता – “शून्य “.

Gajanan Madhav Muktibodh

भीतर जो शून्य है
उसका एक जबड़ा है
जबड़े में माँस काट खाने के दाँत हैं ;
उनको खा जायेंगे,
तुम को खा जायेंगे ।
भीतर का आदतन क्रोधी अभाव वह
हमारा स्वभाव है,
जबड़े की भीतरी अँधेरी खाई में
ख़ून का तालाब है।
ऐसा वह शून्य है
एकदम काला है,बर्बर है,नग्न है
विहीन है, न्यून है
अपने में मग्न है ।
उसको मैं उत्तेजित
शब्दों और कार्यों से
बिखेरता रहता हूँ
बाँटता फिरता हूँ ।
मेरा जो रास्ता काटने आते हैं,
मुझसे मिले घावों में
वही शून्य पाते हैं ।
उसे बढ़ाते हैं,फैलाते हैं,
और-और लोगों में बाँटते बिखेरते,
शून्यों की संतानें उभारते।
बहुत टिकाऊ हैं,
शून्य उपजाऊ है ।
जगह-जगह करवत,कटार और दर्रात,
उगाता-बढ़ाता है
मांस काट खाने के दाँत।
इसी लिए जहाँ देखो वहाँ
ख़ूब मच रही है,ख़ूब ठन रही है,
मौत अब नये-नये बच्चे जन रही है।
जगह-जगह दाँतदार भूल,
हथियार-बन्द ग़लती है,
जिन्हें देख,दुनिया हाथ मलती हुई चलती है।