डूबता चांद, कब डूबेगा – गजानन माधव मुक्तिबोध

गजानन माधव मुक्तिबोध को प्रगतिशील कविता और नयी कविता के बीच का एक सेतु भी माना जाता है. प्रस्तुत है उनकी एक कविता – “डूबता चांद, कब डूबेगा”.

Gajanan Madhav Muktibodh

अंधियारे मैदान के इन सुनसानों में
बिल्ली की, बाघों की आँखों-सी चमक रहीं

ये राग-द्वेष, ईर्ष्या, भय, मत्सर की आँखें,

हरियातूता की ज़हरीली-नीली-नीली

ज्वाला, कुत्सा की आँखों में ।

ईर्ष्या-रूपी औरत की मूँछ निकल आयी ।

इस द्वेष-पुरुष के दो हाथों के

चार और पंजे निकले ।

मत्सर को ठस्सेदार तेज़ दो बौद्धिक सींग निकल आये ।

स्वार्थी भावों की लाल

विक्षुब्ध चींटियों को सहसा

अब उजले पर कितने निकले ।

अंधियारे बिल से झाँक रहे

सर्पों की आँखें तेज़ हुईं ।

अब अहंकार उद्विग्न हुआ,

मानव के सब कपड़े उतार

वह रीछ एकदम नग्न हुआ ।

ठूँठों पर बैठे घुग्घू-दल

के नेत्र-चक्र घूमने लगे

इस बियाबान के नभ में सब

नक्षत्र वक्र घूमने लगे ।

कुछ ऐसी चलने लगी हवा,

अपनी अपराधी कन्या की चिन्ता में माता-सी बेकल

उद्विग्न रात

के हाथों से

अंधियारे नभ की राहों पर

है गिरी छूटकर

गर्भपात की तेज़ दवा

बीमार समाजों की जो थी ।

दुर्घटना से ज्वाला काँपी कन्दीलों में

अंधियारे कमरों की मद्धिम पीली लौ में,

जब नाच रही भीतों पर भुतही छायाएँ

आशंका की–

गहरे कराहते गर्भों से

मृत बालक ये कितने जन्मे,

बीमार समाजों के घर में !

बीमार समाजों के घर में

जितने भी हल है प्रश्नों के

वे हल, जीने के पूर्व मरे । उनके प्रेतों के आस-पास

दार्शनिक दुखों की गिद्ध-सभा

आँखों में काले प्रश्न-भरे बैठी गुम-सुम ।

शोषण के वीर्य-बीज से अब जनमे दुर्दम

दो सिर के, चार पैर वाले राक्षस-बालक ।

विद्रूप सभ्यताओं के लोभी संचालक ।

मानव की आत्मा से सहसा कुछ दानव और निकल आये !

मानव मस्तक में से निकले

कुछ ब्रह्म-राक्षसों ने पहनी

गान्धीजी की टूटी चप्पल

हरहरा उठा यह पीपल तब

हँस पड़ा ठठाकर, गर्जन कर, गाँव का कुआँ ।

तब दूर, सुनाई दिया शब्द, ‘हुआँ’ ‘हुआँ’ !

त्यागे मन्दिर के अध-टूटे गुम्बद पर स्थित

वीरान प्रदेशों का घुग्घू

चुपचाप, तेज़, देखता रहा–

झरने के पथरीले तट पर

रात के अंधेरे में धीरे

चुपचाप, कौन वह आता है, या आती है,

उसके पीछे–

पीला-पीला मद्धिम कोई कन्दील

छिपाये धोती में (डर किरणों से)

चुपचाप कौन वह आता है या आती है–

मानो सपने के भीतर सपना आता हो,

सपने में कोई जैसे पीछे से टोंके,

फिर, कहे कि ऐसा कर डालो !

फिर, स्वयं देखता खड़ा रहे

औ’ सुना करे वीराने की आहटें, स्वयं ही सन्नाकर

रह जाये अपने को खो के !

त्यागे मन्दिर के अध-टूटे गुम्बद पर स्थित

घुग्घू को आँखों को अब तक

कोई भी धोखा नहीं हुआ,

उसने देखा–

झरने के तट पर रोता है कोई बालक,

अंधियारे में काले सियार-से घूम रहे

मैदान सूँघते हुए हवाओं के झोंके ।

झरने के पथरीले तट पर

सो चुका, अरे, किन-किन करके, कुछ रो-रो के

चिथड़ों में सद्योजात एक बालक सुन्दर ।

आत्मा-रूपी माता ने जाने कब त्यागा

जीवन का आत्मज सत्य न जाने किसके डर ?

माँ की आँखों में भय का कितना बीहड़पन

जब वन्य तेंदुओं की आँखों से दमक उठे

गुरु शुक्र और तारे नभ में

जब लाल बबर फ़ौजी-जैसा

जो ख़ूनी चेहरा चमक उठा

वह चांद कि जिसकी नज़रों से

यों बचा-बचा,

यदि आत्मज सत्य यहाँ रक्खे झरने के तट,

अनुभव शिशु की रक्षा होगी ।

ले इसी तरह के भाव अनगिनत लोगों ने

अपने ज़िन्दा सत्यों का गला बचाने को

अपना सब अनुभव छिपा लिया,

हाँ में हाँ, नहीं नहीं में भर

अपने को जग में खपा लिया !

चुपचाप सो रहा था मैं अपने घर में जब,

सहसा जगकर, चट क़दम बढ़ा,

अंधियारे के सुनसान पथों पर निकल पड़ा,

बहते झरने के तट आया

देखा–बालक ! अनुभव-बालक !!

चट, उठा लिया अपनी गोदी में,

वापस ख़ुश-ख़ुश घर आया !

अपने अंधियारे कमरे में

आँखें फाड़े मैने देखा मन के मन में

जाने कितने कारावासी वसुदेव

स्वयं अपने कर में, शिशु-आत्मज ले,

बरसाती रातों में निकले,

धँस रहे अंधेरे जंगल में

विक्षुब्ध पूर में यमुना के

अति-दूर, अरे, उस नन्द-ग्राम की ओर चले ।

जाने किसके डर स्थानान्तरित कर रहे वे

जीवन के आत्मज सत्यों को,

किस महाकस से भय खाकर गहरा-गहरा :

भय से अभ्यस्त कि वे उतनी

लेकिन परवाह नहीं करते !!

इसलिए, कंस के घण्टाघर

में ठीक रात के बारह पर

बन्दूक़ थमा दानव-हाथों,

अब दुर्जन ने बदला पहरा !

पर इस नगरी के मरे हुए

जीवन के काले जल की तह

के नीचे सतहों में चुप

जो दबे पाँव चलती रहतीं

जल-धाराएँ ताज़ी-ताज़ी निर्भय, उद्धत

तल में झींरे वे अप्रतिहत !

कानाफूसी से व्याप्त बहुत हो जाती है,

इन धाराओं में बात बहुत हो जाती है ।

आते-जाते, पथ में, दो शब्द फुसफुसाते

इनको, घर आते, रात बहुत हो जाती है ।

एक ने कहा–

अम्बर के पलने से उतार रवि–राजपुत्र

ढाँककर साँवले कपड़ों में

रख दिशा-टोकरी में उसको

रजनी-रूपी पन्ना दाई

अपने से जन्मा पुत्र-चन्द्र फिर सुला गगन के पलने में

चुपचाप टोकरी सिर पर रख

रवि-राजपुत्र ले खिसक गयी

पुर के बाहर पन्ना दाई ।

यह रात-मात्र उसकी छाया ।

घबराहट जो कि हवा में है

इसलिए कि अब

शशि की हत्या का क्षण आया ।

अन्य ने कहा–

घन तम में लाल अलावों की

नाचती हुई ज्वालाओं में

मृद चमक रहे जन-जन मुख पर

आलोकित ये विचार है अब,

ऐसे कुछ समाचार है अब

यह घटना बार-बार होगी,

शोषण के बन्दी-गृह-जन में

जीवन की तीव्र धार होगी !

और ने कहा–

कारा के चौकीदार कुशल

चुपचाप फलों के बक्से में

युगवीर शिवाजी को भरते

जो वेश बदल, जाता दक्षिण को ओर निकल !

एक ने कहा–

बन्दूक़ों के कुन्दों पर स्याह अंगूठों ने

लोहे के घोड़े खड़े किये,

पिस्तौलों ने अपने-अपने मुँह बड़े किये,

अस्त्रों को पकड़े कलाइयों

की मोटी नस हाँफने लगी

एकाग्र निशाना बने ध्यान के माथे पर

फिर मोटी नसें कसी, उभरीं

पर पैरों में काँपने लगी ।

लोहे की नालों की टापें गूँजने लगी ।

अम्बर के हाथ-पैर फूले,

काल की जड़ें सूजने लगीं ।

झाड़ों की दाढ़ी में फन्दे झूलने लगे,

डालों से मानव-देह बंधे झूलने लगे ।

गलियों-गलियों हो गयी मौत की गस्त शुरु,

पागल-आँखों, सपने सियाह बदमस्त शुरु !

अपने ही कृत्यों-डरी

रीढ़ हड्डी

पिचपिची हुई,

वह मरे साँप के तन-सी ही लुचलुची हुई ।

अन्य ने कहा–

दुर्दान्त ऐतिहासिक स्पन्दन

के लाल रक्त से लिखते तुलसीदास आज

अपनी पीड़ा की रामायण,

उस रामायण की पीड़ा के आलोक-वलय

में मुख-मण्डल माँ का झुर्रियों-भरा

उभरा-निखरा,

उर-कष्ट-भरी स्मित-हँसी

कि ज्यों आहत पक्षी

रक्तांकित पंख फड़फड़ाती

मेरे उर की शाखाओं पर आ बैठी है

कराह दाबे गहरी

(जिससे कि न मैं जाऊँ घबरा)

माँ की जीवन-भर की ठिठुरन,

मेरे भीतर

गहरी आँखोंवाला सचेत

बन गयी दर्द ।

उसकी जर्जर बदरंग साड़ी का रंग

मेरे जीवन में पूरा फैल गया ।

मुझको, तुमको

उसकी आस्था का विक्षोभी

गहरी धक्का

विक्षुब्ध ज़िन्दगी की सड़कों पर ठेल गया ।

भोली पुकारती आँखें वे

मुझको निहारती बैठी हैं ।

और ने कहा–

वह चादर ओढ़, दबा ठिठुरन, मेरे साथी !

वह दूर-दूर बीहड़ में भी,

बीहड़ के अन्धकार में भी,

जब नहीं सूझ कुछ पड़ता है,

जब अंधियारा समेट बरगद

तम की पहाड़ियों-से दिखते,

जब भाव-विचार स्वयं के भी

तम-भरी झाड़ियों-से दिखते ।

जब तारे सिर्फ़ साथ देते

पर नहीं हाथ देते पल-भर

तब, कण्ठ मुक्त कर, मित्र-स्वजन

नित नभ-चुम्बी गीतों द्वारा

अपना सक्रिय अस्तित्व जताते एक-दूसरे को

वे भूल और फिर से सुधार के रास्ते से

अपना व्यक्तित्व बनाते हैं।

तब हम भी अपने अनुभव के सारांशों को

उन तक पहुँचाते हैं, जिसमें

जिस पहुँचाने के द्वारा, हम सब साथी मिल

दण्डक वन में से लंका का

पथ खोज निकाल सकें प्रतिपल

धीरे-धीरे ही सही, बढ़ उत्थानों में अभियानों में

अंधियारे मैदानों के इन सुनसानों में

रात की शून्यताओं का गहरापन ओढ़े

ज़्यादा मोटे, ज़्यादा ऊँचे, ज़्यादा ऐंठे

भारी-भरकम लगने वाले

इन क़िले-कंगूरों-छज्जों-गुम्बद-मीनारों

पर, क्षितिज-गुहा-मांद में से निकल

तिरछा झपटा,

जो गंजी साफ़-सफ़ेद खोपड़ीवाला चांद

कुतर्की वह

सिर-फिरे किसी ज्यामिति-शाली-सा है।

नीले-पीले में घुले सफ़ेद उजाले की

आड़ी-तिरछी लम्बी-चौड़ी

रेखाओं से

इन अन्धकार-नगरी की बढ़ी हुई

आकृति के खींच खड़े नक्षे

वह नये नमूने बना रहा

उस वक़्त हवाओं में अजीब थर्राहट-सी

मैं उसको सुनता हुआ,

बढ़ रहा हूँ आगे

चौराहे पर

प्राचीन किसी योद्धा की ऊँची स्फटिक मूर्ति,

जिस पर असंग चमचमा रही है

राख चांदनी की अजीब

उस हिमीभूत सौन्दर्य-दीप्ती

में पुण्य कीर्ति

की वह पाषाणी अभिव्यक्ति

कुछ हिली।

उस स्फटिक मूर्ति के पास

देखता हूँ कि चल रही साँस

मेरी उसकी।

वे होंठ हिले

वे होंठ हँसे

फिर देखा बहुत ध्यान से तब

भभके अक्षर!!

वे लाल-लाल नीले-से स्वर

बाँके टेढ़े जो लटक रहे

उसके चबूतरे पर, धधके!!

मेरी आँखों में धूमकेतु नाचे,

उल्काओं की पंक्तियाँ काव्य बन गयीं

घोषणा बनी!!

चांदनी निखर हो उठी

उस स्फटिक मूर्ति पर, उल्काओं पर

मेरे चेहरे पर!!

पाषाण मूर्ति के स्फटिक अधर

पर वक्र-स्मित

कि रेखाएँ उसकी निहारती हैं

उन रेखाओं में सहसा मैं बंध जाता हूँ

मेरे चेहरे पर नभोगन्धमय एक भव्यता-सी।

धीरे-धीरे मैं क़दम बढ़ा

गलियों की ओर मुड़ा

जाता हूँ ज्वलत् शब्द-रेखा

दीवारों पर, चांदनी-धुंधलके में भभकी

वह कल होनेवाली घटनाओं की कविता

जी में उमगी!!

तब अन्धकार-गलियों की

गहरी मुस्कराहट

के लम्बे-लम्बे गर्त-टीले

मेरे पीले चेहरे पर सहसा उभर उठे!!

यों हर्षोत्फुल्ल ताज़गी ले

मैं घर में घुसता हूँ कि तभी

सामने खड़ी स्त्री कहती है–

“अपनी छायाएँ सभी तरफ़

हिल-डोल-रहीं,

ममता मायाएँ सभी तरफ़

मिल बोल रहीं,

हम कहाँ नहीं, हम जगह-जगह

हम यहाँ-वहाँ,

माना कि हवा में थर्राता गाना भुतहा,

हम सक्रिय हैं।”

मेरे मुख पर

मुसकानों के आन्दोलन में

बोलती नहीं, पर डोल रही

शब्दों की तीखी तड़ित्

नाच उठती, केवल प्रकाश-रेखा बनकर!

अपनी खिड़की से देख रहे हैं हम दोनों

डूबता चांद, कब डूबेगा!!