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जीवन का दिन बीत चुका था छाई थी जीवन की रात – हरिवंश राय बच्चन

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हरिवंश राय बच्चन हिन्दी कविता के उत्तर छायावद काल के प्रमुख कवियों में से एक हैं. उनकी एक हिंदी कविता पढ़ें जिसका शीर्षक है “जीवन का दिन बीत चुका था छाई थी जीवन की रात”. यह कविता बेहद लोकप्रिय कविता है बच्चन साहब की.

Harivansh Rai Bachchan

[सुभाष बोस के प्रति]

जीवन का दिन बीत चुका था,
छाई थी जीवन की रात,
किंतु नहीं मैंने छोड़ी थी
आशा-होगा पुनः प्रभात।

काल न ठंडी कर पाया था,
मेरे वक्षस्थल की आग,
तोम तिमिर के प्रति विद्रोही
बन उठता हर एक चिराग़।

मेरे आँगन के अंदर भी,
जल-जलकर प्राणों के दीप,
मुझ से यह कहते रहते थे,
“मां, है प्रातःकाल समीप!”

किंतु प्रतीक्षा करते हारा
एक दिया नन्हा-नादान,
बोला, “मां, जाता मैं लाने
सूरज को धर उसके कान!”

औ’ मेरा वह वातुल, चंचल
मेरा वह नटखट नादान,
मेरे आँगन को कर सूना
हाय, हो गया अंतर्धान।

और, नियति की चाल अनोखी,
आया फिर ऐसा तूफ़ान,
जिसने कर डाला कितने ही
मेरे दीपों का अवसान।

हर बल अपने को बिखराकर,
होता शांत, सभी को ज्ञात,
मंद पवन में ही परिवर्तित
हो जाता हर झंझावात।

औ’, अपने आँगन के दीपों
को फिर आज रही मैं जोड़,
अडिग जिन्होंने रहकर ली थी
भीषण झंझानिल से होड़।

बिछुड़े दीपक फिर मिलते हैं,
मिलकर मोद मनाते हैं,
किसने क्या झेला, क्या भोगा
आपस में बतलाते हैं।

किन्तु नहीं लौटा है अब तक
मेरा वह भोला, अनजान
दीप गया था जो प्राची को
लाने मेरा स्वर्ण विहान।

शासन चलता तलवार से – गोपाल सिंह नेपाली

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गोपाल सिंह नेपाली हिन्दी एवं नेपाली के प्रसिद्ध कवि थे. प्रस्तुत है उनकी एक बेहद खूबसूरत हिंदी की कविता जिसका शीर्षक है – “शासन चलता तलवार से”.

Gopal Singh Nepali

शासन चलता तलवार से
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।
चरखा चलता है हाथों से, शासन चलता तरवार से ।।

यह राम-कृष्ण की जन्मभूमि, पावन धरती सीताओं की
फिर कमी रही कब भारत में सभ्यता, शांति, सदभावों की
पर नए पड़ोसी कुछ ऐसे, गोली चलती उस पार से ।
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।।

तुम उड़ा कबूतर अंबर में संदेश शांति का देते हो
चिट्ठी लिखकर रह जाते हो, जब कुछ गड़बड़ सुन लेते हो
वक्तव्य लिखो कि विरोध करो, यह भी काग़ज़ वह भी काग़ज़
कब नाव राष्ट्र की पार लगी यों काग़ज़ की पतवार से ।
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।।

तुम चावल भिजवा देते हो, जब प्यार पुराना दर्शाकर
वह प्राप्ति सूचना देते हैं, सीमा पर गोली-वर्षा कर
चुप रहने को तो हम इतना चुप रहें कि मरघट शर्माए
बंदूकों से छूटी गोली कैसे चूमोगे प्यार से ।
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।।

मालूम हमें है तेज़ी से निर्माण हो रहा भारत का
चहुँ ओर अहिंसा के कारण गुणगान हो रहा भारत का
पर यह भी सच है, आज़ादी है, तो ही चल रही अहिंसा है
वरना अपना घर दीखेगा फिर कहाँ क़ुतुब मीनार से ।
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।।

स्वातंत्र्य न निर्धन की पत्नी कि पड़ोसी जब चाहें छेड़ें
यह वह पागलपन है जिसमें शेरों से लड़ जाती हैं भेड़ें
पर यहाँ ठीक इसके उल्टे, हैं भेड़ छेड़ने वाले ही
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।।

नहरें फिर भी खुद सकती हैं, बन सकती है योजना नई
जीवित है तो फिर कर लेंगे कल्पना नई, कामना नई
घर की है बात, यहाँ ‘बोतल’ पीछे भी पकड़ी जाएगी
पहले चलकर के सीमा पर सर झुकवा लो संसार से ।
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।।

फिर कहीं ग़ुलामी आई तो, क्या कर लेंगे हम निर्भय भी
स्वातंत्र्य सूर्य के साथ अस्त हो जाएगा सर्वोदय भी
इसलिए मोल आज़ादी का नित सावधान रहने में है
लड़ने का साहस कौन करे, फिर मरने को तैयार से ।
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।।

तैयारी को भी तो थोड़ा चाहिए समय, साधन, सुविधा
इसलिए जुटाओ अस्त्र-शस्त्र, छोड़ो ढुलमुल मन की दुविधा
जब इतना बड़ा विमान तीस नखरे करता तब उड़ता है
फिर कैसे तीस करोड़ समर को चल देंगे बाज़ार से ।
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।।

हम लड़ें नहीं प्रण तो ठानें, रण-रास रचाना तो सीखें
होना स्वतंत्र हम जान गए, स्वातंत्र्य बचाना तो सीखें
वह माने सिर्फ़ नमस्ते से, जो हँसे, मिले, मृदु बात करे
बंदूक चलाने वाला माने बमबारी की मार से ।
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।।

सिद्धांत, धर्म कुछ और चीज़, आज़ादी है कुछ और चीज़
सब कुछ है तरु-डाली-पत्ते, आज़ादी है बुनियाद चीज़
इसलिए वेद, गीता, कुर‍आन, दुनिया ने लिखे स्याही से
लेकिन लिक्खा आज़ादी का इतिहास रुधिर की धार से
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।
चर्खा चलता है हाथों से, शासन चलता तलवार से ।।

तारे चमके, तुम भी चमको – गोपाल सिंह नेपाली

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गोपाल सिंह नेपाली हिन्दी एवं नेपाली के प्रसिद्ध कवि थे. प्रस्तुत है उनकी एक बेहद खूबसूरत हिंदी की कविता जिसका शीर्षक है – “तारे चमके, तुम भी चमको”.

Gopal Singh Nepali

तारे चमके, तुम भी चमको, अब बीती रात न लौटेगी,
लौटी भी तो एक दिन फिर यह, हम दो के साथ न लौटेगी ।

जब तक नयनों में ज्योति जली, कुछ प्रीत चली कुछ रीत चली,
हो जाएँगे जब बंद नयन, नयनों की घात न लौटेगी ।

मन देकर भी तन दे बैठे, मरने तक जीवन दे बैठे,
होगा फिर जनम-मरण होगा, पर वह सौगात न लौटेगी ।

एक दिन को मिलने साजन से, बारात उठेगी आँगन से,
शहनाई फिर बज सकती है, पर यह बारात न लौटेगी ।

क्या पूरब है, क्या पश्चिम है, हम दोनों हैं और रिमझिम है,
बरसेगी फिर यह श्याम घटा, पर यह बरसात न लौटेगी ।

मुसकुराती रही कामना – गोपाल सिंह नेपाली

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गोपाल सिंह नेपाली हिन्दी एवं नेपाली के प्रसिद्ध कवि थे. प्रस्तुत है उनकी एक बेहद खूबसूरत हिंदी की कविता जिसका शीर्षक है – “मुसकुराती रही कामना”.

Gopal Singh Nepali

तुम जलाकर दिये, मुँह छुपाते रहे, जगमगाती रही कल्पना
रात जाती रही, भोर आती रही, मुसकुराती रही कामना

चाँद घूँघट घटा का उठाता रहा
द्वार घर का पवन खटखटाता रहा
पास आते हुए तुम कहीं छुप गए
गीत हमको पपीहा रटाता रहा

तुम कहीं रह गये, हम कहीं रह गए, गुनगुनाती रही वेदना
रात जाती रही, भोर आती रही, मुसकुराती रही कामना

तुम न आए, हमें ही बुलाना पड़ा
मंदिरों में सुबह-शाम जाना पड़ा
लाख बातें कहीं मूर्तियाँ चुप रहीं
बस तुम्हारे लिए सर झुकाता रहा

प्यार लेकिन वहाँ एकतरफ़ा रहा, लौट आती रही प्रार्थना
रात जाती रही, भोर आती रही, मुसकुराती रही कामना

शाम को तुम सितारे सजाते चले
रात को मुँह सुबह का दिखाते चले
पर दिया प्यार का, काँपता रह गया
तुम बुझाते चले, हम जलाते चले

दुख यही है हमें तुम रहे सामने, पर न होता रहा सामना
रात जाती रही, भोर आती रही, मुसकुराती रही कामना

स्‍वतंत्रता का दीपक – गोपाल सिंह नेपाली

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गोपाल सिंह नेपाली हिन्दी एवं नेपाली के प्रसिद्ध कवि थे. प्रस्तुत है उनकी एक बेहद खूबसूरत हिंदी की कविता जिसका शीर्षक है – “स्‍वतंत्रता का दीपक”.

Gopal Singh Nepali

घोर अंधकार हो, चल रही बयार हो,
आज द्वार द्वार पर यह दिया बुझे नहीं।
यह निशीथ का दिया ला रहा विहान है ।

शक्ति का दिया हुआ, शक्ति को दिया हुआ,
भक्ति से दिया हुआ, यह स्‍वतंत्रतादिया,
रुक रही न नाव हो, जोर का बहाव हो,
आज गंगधार पर यह दिया बुझे नहीं!
यह स्‍वदेश का दिया हुआ प्राण के समान है!

यह अतीत कल्‍पना, यह विनीत प्रार्थना,
यह पुनीत भवना, यह अनंत साधना,
शांति हो, अशांति हो, युद्ध, संधि, क्रांति हो,
तीर पर, कछार पर, यह दिया बुझे नहीं!
देश पर, समाज पर, ज्‍योति का वितान है!

तीन चार फूल है, आस पास धूल है,
बाँस है, फूल है, घास के दुकूल है,
वायु भी हिलोर से, फूँक दे, झकोर दे,
कब्र पर, मजार पर, यह दिया बुझे नहीं!
यह किसी शहीद का पुण्‍य प्राणदान है!

झूम झूम बदलियाँ, चुम चुम बिजलियाँ
आँधियाँ उठा रही, हलचले मचा रही!
लड़ रहा स्‍वदेश हो, शांति का न लेश हो
क्षुद्र जीत हार पर, यह दिया बुझे नहीं!
यह स्‍वतंत्र भावना का स्‍वतंत्र गान है!

नवीन कल्पना करो – गोपाल सिंह नेपाली

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गोपाल सिंह नेपाली हिन्दी एवं नेपाली के प्रसिद्ध कवि थे. प्रस्तुत है उनकी एक बेहद खूबसूरत हिंदी की कविता जिसका शीर्षक है – “नवीन कल्पना करो”.

Gopal Singh Nepali

निज राष्ट्र के शरीर के सिंगार के लिए
तुम कल्पना करो, नवीन कल्पना करो,
तुम कल्पना करो।

अब देश है स्वतंत्र, मेदिनी स्वतंत्र है
मधुमास है स्वतंत्र, चाँदनी स्वतंत्र है
हर दीप है स्वतंत्र, रोशनी स्वतंत्र है
अब शक्ति की ज्वलंत दामिनी स्वतंत्र है

लेकर अनंत शक्तियाँ सद्य समृद्धि की-
तुम कामना करो, किशोर कामना करो,
तुम कल्पना करो।

तन की स्वतंत्रता चरित्र का निखार है
मन की स्वतंत्रता विचार की बहार है
घर की स्वतंत्रता समाज का सिंगार है
पर देश की स्वतंत्रता अमर पुकार है

टूटे कभी न तार यह अमर पुकार का-
तुम साधना करो, अनंत साधना करो,
तुम कल्पना करो।

हम थे अभी-अभी गुलाम, यह न भूलना
करना पड़ा हमें सलाम, यह न भूलना
रोते फिरे उमर तमाम, यह न भूलना
था फूट का मिला इनाम, वह न भूलना

बीती गुलामियाँ, न लौट आएँ फिर कभी
तुम भावना करो, स्वतंत्र भावना करो
तुम कल्पना करो।

मेरा देश बड़ा गर्वीला – गोपाल सिंह नेपाली

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गोपाल सिंह नेपाली हिन्दी एवं नेपाली के प्रसिद्ध कवि थे. प्रस्तुत है उनकी एक बेहद खूबसूरत हिंदी की कविता जिसका शीर्षक है – “मेरा देश बड़ा गर्वीला”.

Gopal Singh Nepali

मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतु-रंग-रंगीली
नीले नभ में बादल काले, हरियाली में सरसों पीली

यमुना-तीर, घाट गंगा के, तीर्थ-तीर्थ में बाट छाँव की
सदियों से चल रहे अनूठे, ठाठ गाँव के, हाट गाँव की

शहरों को गोदी में लेकर, चली गाँव की डगर नुकीली
मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतु-रंग-रंगीली

खडी-खड़ी फुलवारी फूले, हार पिरोए बैठ गुजरिया
बरसाए जलधार बदरिया, भीगे जग की हरी चदरिया

तृण पर शबनम, तरु पर जुगनू, नीड़ रचाए तीली-तीली
मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतु-रंग-रंगीली

घास-फूस की खड़ी झोपड़ी, लाज सम्भाले जीवन-भर की
कुटिया में मिट्टी के दीपक, मंदिर में प्रतिमा पत्थर की

जहाँ वास कँकड़ में हरि का, वहाँ नहीं चाँदी चमकीली
मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतु-रंग-रंगीली

जो कमला के चरण पखारे, होता है वह कमल-कीच में
तृण, तंदुल, ताम्बूल, ताम्र, तिल के दीपक बीच-बीच में

सीधी-सदी पूजा अपनी, भक्ति लजीली मूर्ति सजीली
मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतुरंग-रंगीली

बरस-बरस पर आती होली, रंगों का त्यौहार अनोखा
चुनरी इधर-उधर पिचकारी, गाल-भाल पर कुमकुम फूटा

लाल-लाल बन जाए काले, गोरी सूरत पीली-नीली
मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतुरंग-रंगीली

दिवाली- दीपों का मेला, झिलमिल महल-कुटी-गलियारे
भारत-भर में उतने दीपक, जितने जलते नभ में तारे

सारी रात पटाखे छोडे, नटखट बालक उम्र हठीली
मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतुरंग-रंगीली

खंडहर में इतिहास सुरक्षित, नगर-नगर में नई रौशनी
आए-गए हुए परदेशी, यहाँ अभी भी वही चाँदनी

अपना बना हजम कर लेती, चाल यहाँ की ढीली-ढीली
मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतुरंग-रंगीली

मन में राम, बगल में गीता, घर-घर आदर रामायण का
किसी वंश का कोई मानव, अंश साझते नारायण का

ऐसे हैं भारत के वासी, गात गठीला, बाट चुटीली
मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतुरंग-रंगीली

आन कठिन भारत की लेकिन, नर-नारी का सरल देश है
देश और भी हैं दुनिया में, पर गाँधी का यही देश है

जहाँ राम की जय जग बोला, बजी श्याम की वेणु सुरीली
मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतु-रंग-रंगीली

लो गंगा-यमुना-सरस्वती या लो मंदिर-मस्जिद-गिरजा
ब्रह्मा-विष्णु-महेश भजो या जीवन-मरण-मोक्ष की चर्चा

सबका यहीं त्रिवेणी-संगम, ज्ञान गहनतम, कला रसीली
मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतु-रंग-रंगीली

मेरा धन है स्वाधीन क़लम – गोपाल सिंह नेपाली

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गोपाल सिंह नेपाली हिन्दी एवं नेपाली के प्रसिद्ध कवि थे. प्रस्तुत है उनकी एक बेहद खूबसूरत हिंदी की कविता जिसका शीर्षक है – “मेरा धन है स्वाधीन क़लम”.

Gopal Singh Nepali

राजा बैठे सिंहासन पर, यह ताजों पर आसीन क़लम
मेरा धन है स्वाधीन क़लम
जिसने तलवार शिवा को दी
रोशनी उधार दिवा को दी
पतवार थमा दी लहरों को
खंजर की धार हवा को दी
अग-जग के उसी विधाता ने, कर दी मेरे आधीन क़लम
मेरा धन है स्वाधीन क़लम

रस-गंगा लहरा देती है
मस्ती-ध्वज फहरा देती है
चालीस करोड़ों की भोली
किस्मत पर पहरा देती है
संग्राम-क्रांति का बिगुल यही है, यही प्यार की बीन क़लम
मेरा धन है स्वाधीन क़लम

कोई जनता को क्या लूटे
कोई दुखियों पर क्या टूटे
कोई भी लाख प्रचार करे
सच्चा बनकर झूठे-झूठे
अनमोल सत्य का रत्‍नहार, लाती चोरों से छीन क़लम
मेरा धन है स्वाधीन क़लम

बस मेरे पास हृदय-भर है
यह भी जग को न्योछावर है
लिखता हूँ तो मेरे आगे
सारा ब्रह्मांड विषय-भर है
रँगती चलती संसार-पटी, यह सपनों की रंगीन क़लम
मेरा धन है स्वाधीन कलम

लिखता हूँ अपनी मर्ज़ी से
बचता हूँ कैंची-दर्ज़ी से
आदत न रही कुछ लिखने की
निंदा-वंदन खुदगर्ज़ी से
कोई छेड़े तो तन जाती, बन जाती है संगीन क़लम
मेरा धन है स्वाधीन क़लम

तुझ-सा लहरों में बह लेता
तो मैं भी सत्ता गह लेता
ईमान बेचता चलता तो
मैं भी महलों में रह लेता
हर दिल पर झुकती चली मगर, आँसू वाली नमकीन क़लम
मेरा धन है स्वाधीन क़लम

हिमालय और हम – गोपाल सिंह नेपाली

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गोपाल सिंह नेपाली हिन्दी एवं नेपाली के प्रसिद्ध कवि थे. प्रस्तुत है उनकी एक बेहद खूबसूरत हिंदी की कविता जिसका शीर्षक है – “हिमालय और हम”.

Gopal Singh Nepali गिरिराज हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है ।

(1)
इतनी ऊँची इसकी चोटी कि सकल धरती का ताज यही ।
पर्वत-पहाड़ से भरी धरा पर केवल पर्वतराज यही ।।
अंबर में सिर, पाताल चरण
मन इसका गंगा का बचपन
तन वरण-वरण मुख निरावरण
इसकी छाया में जो भी है, वह मस्‍तक नहीं झुकाता है ।
ग‍िरिराज हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है ।।

(2)

अरूणोदय की पहली लाली इसको ही चूम निखर जाती ।
फिर संध्‍या की अंतिम लाली इस पर ही झूम बिखर जाती ।।
इन शिखरों की माया ऐसी
जैसे प्रभात, संध्‍या वैसी
अमरों को फिर चिंता कैसी ?
इस धरती का हर लाल खुशी से उदय-अस्‍त अपनाता है ।
गिरिराज हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है ।।

(3)

हर संध्‍या को इसकी छाया सागर-सी लंबी होती है ।
हर सुबह वही फिर गंगा की चादर-सी लंबी होती है ।।
इसकी छाया में रंग गहरा
है देश हरा, प्रदेश हरा
हर मौसम है, संदेश भरा
इसका पद-तल छूने वाला वेदों की गाथा गाता है ।
गिरिराज हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है ।।

(4)

जैसा यह अटल, अडिग-अविचल, वैसे ही हैं भारतवासी ।
है अमर हिमालय धरती पर, तो भारतवासी अविनाशी ।।
कोई क्‍या हमको ललकारे
हम कभी न हिंसा से हारे
दु:ख देकर हमको क्‍या मारे
गंगा का जल जो भी पी ले, वह दु:ख में भी मुसकाता है ।
गिरिराज हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है ।।

(5)

टकराते हैं इससे बादल, तो खुद पानी हो जाते हैं ।
तूफ़ान चले आते हैं, तो ठोकर खाकर सो जाते हैं ।
जब-जब जनता को विपदा दी
तब-तब निकले लाखों गाँधी
तलवारों-सी टूटी आँधी
इसकी छाया में तूफ़ान, चिरागों से शरमाता है।
गिरिराज, हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है ।

हिंदी है भारत की बोली – गोपाल सिंह नेपाली

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गोपाल सिंह नेपाली हिन्दी एवं नेपाली के प्रसिद्ध कवि थे. प्रस्तुत है उनकी एक बेहद खूबसूरत हिंदी की कविता जिसका शीर्षक है – “हिंदी है भारत की बोली”.

Gopal Singh Nepali

दो वर्तमान का सत्‍य सरल,
सुंदर भविष्‍य के सपने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो अपने आप पनपने दो

यह दुखड़ों का जंजाल नहीं,
लाखों मुखड़ों की भाषा है
थी अमर शहीदों की आशा,
अब जिंदों की अभिलाषा है
मेवा है इसकी सेवा में,
नयनों को कभी न झंपने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो अपने आप पनपने दो

क्‍यों काट रहे पर पंछी के,
पहुंची न अभी यह गांवों तक
क्‍यों रखते हो सीमित इसको
तुम सदियों से प्रस्‍तावों तक
औरों की भिक्षा से पहले,
तुम इसे सहारे अपने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो अपने आप पनपने दो

श्रृंगार न होगा भाषण से
सत्‍कार न होगा शासन से
यह सरस्‍वती है जनता की
पूजो, उतरो सिंहासन से
इसे शांति में खिलने दो
संघर्ष-काल में तपने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो अपने आप पनपने दो

जो युग-युग में रह गए अड़े
मत उन्‍हीं अक्षरों को काटो
यह जंगली झाड़ न, भाषा है,
मत हाथ पांव इसके छांटो
अपनी झोली से कुछ न लुटे
औरों का इसमें खपने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो आपने आप पनपने दो

इसमें मस्‍ती पंजाबी की,
गुजराती की है कथा मधुर
रसधार देववाणी की है,
मंजुल बंगला की व्‍यथा मधुर
साहित्‍य फलेगा फूलेगा
पहले पीड़ा से कंपने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो आपने आप पनपने दो

नादान नहीं थे हरिश्‍चंद्र,
मतिराम नहीं थे बुद्ध‍िहीन
जो कलम चला कर हिंदी में
रचना करते थे नित नवीन
इस भाषा में हर ‘मीरा’ को
मोहन की माल जपने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो अपने आप पनपने दो

प्रतिभा हो तो कुछ सृष्‍ट‍ि करो
सदियों की बनी बिगाड़ो मत
कवि सूर बिहारी तुलसी का
यह बिरुवा नरम उखाड़ो मत
भंडार भरो, जनमन की
हर हलचल पुस्‍तक में छपने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो अपने आप पनपने दो

मृदु भावों से हो हृदय भरा
तो गीत कलम से फूटेगा
जिसका घर सूना-सूना हो
वह अक्षर पर ही टूटेगा
अधिकार न छीनो मानस का
वाणी के लिए कलपने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो अपने आप पनपने दो

बढ़ने दो इसे सदा आगे
हिंदी जनमत की गंगा है
यह माध्‍यम उस स्‍वाधीन देश का
जिसकी ध्‍वजा तिरंगा है
हों कान पवित्र इसी सुर में
इसमें ही हृदय तड़पने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो अपने आप पनपने दो