Presenting the ghazal “Muddat Hui Yaar Ko Mehmaan Kiye Hue”, written by the Urdu Poet Mirza Ghalib.
मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किए हुए
मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किए हुए
जोश-ए-क़दह से बज़्म चराग़ाँ किए हुए
करता हूँ जम्अ’ फिर जिगर-ए-लख़्त-लख़्त को
अर्सा हुआ है दावत-ए-मिज़्गाँ किए हुए
फिर वज़-ए-एहतियात से रुकने लगा है दम
बरसों हुए हैं चाक गरेबाँ किए हुए
फिर गर्म-नाला-हा-ए-शरर-बार है नफ़स
मुद्दत हुई है सैर-ए-चराग़ाँ किए हुए
फिर पुर्सिश-ए-जराहत-ए-दिल को चला है इश्क़
सामान-ए-सद-हज़ार नमक-दाँ किए हुए
फिर भर रहा हूँ ख़ामा-ए-मिज़्गाँ ब-ख़ून-ए-दिल
साज़-ए-चमन तराज़ी-ए-दामाँ किए हुए
बाहम-दिगर हुए हैं दिल ओ दीदा फिर रक़ीब
नज़्ज़ारा ओ ख़याल का सामाँ किए हुए
दिल फिर तवाफ़-ए-कू-ए-मलामत को जाए है
पिंदार का सनम-कदा वीराँ किए हुए
फिर शौक़ कर रहा है ख़रीदार की तलब
अर्ज़-ए-मता-ए-अक़्ल-ओ-दिल-ओ-जाँ किए हुए
दौड़े है फिर हर एक गुल-ओ-लाला पर ख़याल
सद-गुलिस्ताँ निगाह का सामाँ किए हुए
फिर चाहता हूँ नामा-ए-दिलदार खोलना
जाँ नज़्र-ए-दिल-फ़रेबी-ए-उनवाँ किए हुए
माँगे है फिर किसी को लब-ए-बाम पर हवस
ज़ुल्फ़-ए-सियाह रुख़ पे परेशाँ किए हुए
चाहे है फिर किसी को मुक़ाबिल में आरज़ू
सुरमे से तेज़ दश्ना-ए-मिज़्गाँ किए हुए
इक नौ-बहार-ए-नाज़ को ताके है फिर निगाह
चेहरा फ़रोग़-ए-मय से गुलिस्ताँ किए हुए
फिर जी में है कि दर पे किसी के पड़े रहें
सर ज़ेर-बार-ए-मिन्नत-ए-दरबाँ किए हुए
जी ढूँडता है फिर वही फ़ुर्सत कि रात दिन
बैठे रहें तसव्वुर-ए-जानाँ किए हुए
‘ग़ालिब’ हमें न छेड़ कि फिर जोश-ए-अश्क से
बैठे हैं हम तहय्या-ए-तूफ़ाँ किए हुए