किसे देखें कहाँ देखा न जाये – नासिर काज़मी

नासिर काज़मी के ग़ज़लों में देश बटवारे का दुःख झलकता है, साथ ही उनके कलाम में उनका युग बोलता हुआ दिखाई देता है. आज पढ़िए उनकी एक ग़ज़ल “किसे देखें कहाँ देखा न जाये”.

Nasir Kazmi

किसे देखें कहाँ देखा न जाये
वो देखा है जहाँ देखा न जाये

मेरी बरबादियों पर रोने वाले
तुझे महव-ए-फुगाँ देखा न जाये

सफ़र है और गुरबत का सफ़र है
गम-ए-सद-कारवाँ देखा न जाये

कहीं आग और कहीं लाशों के अंबार
बस ऐ दौर-ए-ज़मीँ देखा न जाये

दर-ओ-दीवार वीराँ, शमा मद्धम
शब-ओ-गम का सामाँ देखा न जाये

पुरानी सुहब्बतें याद आती है
चरागों का धुआँ देखा न जाये

भरी बरसात खाली जा रही है
सराबर-ए-रवाँ देखा न जाये

कहीं तुम और कहीं हम, क्या गज़ब है
फिराक-ए-जिस्म-ओ-जाँ देखा न जाये

वही जो हासिल-ए-हस्ती है नासिर
उसी को मेहरबाँ देखा न जाये