जरा सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है – वसीम बरेलवी

वसीम बरेलवी जो कि उर्दू शायरी के ये एक बेहद प्रसिद्ध शायर हैं, उनकी ये खूबसूरत ग़ज़ल पढ़िए जिसका शीर्षक है – “जरा सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है”.

वसीम बरेलवी Waseem Barelvi

जरा सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है,
समंदरो ही के लहजे में बात करता है।

खुली छतों के दियें कब के बुझ गये होते,
कोई तो है जो हवाओं के पर कतरता है।

शराफ़तों की यहाँ कोई अहमियत ही नहीं,
किसी का कुछ न बिगाड़ो तो कौन डरता है।

ये देखना है कि सहरा भी है समुंदर भी,
वो मेरी तिश्ना-लबी किस के नाम करता है।

तुम आ गए हो तो कुछ चाँदनी सी बातें हों,
ज़मीं पे चाँद कहाँ रोज़ रोज़ उतरता है।

जमीं की कैसी वकालत हो फिर नहीं चलती,
जब आसमाँ से कोई फैसला उतरता है।