मजबूरी के मौसम में भी जीना पड़ता है – ज़फ़र गोरखपुरी

ज़फ़र गोरखपुरी ऐसे शायर हैं जिसने एक विशिष्ट और आधुनिक अंदाज़ अपनाकर उर्दू ग़ज़ल के क्लासिकल मूड को नया आयाम दिया. उनकी ग़ज़ल “मजबूरी के मौसम में भी जीना पड़ता है” पढ़िये.

Zafar Gorakhpuri

मजबूरी के मौसम में भी जीना पड़ता है
थोड़ा सा समझौता जानम करना पड़ता है

कभी कभी कुछ इस हद तक बढ़ जाती है लाचारी
लगता है ये जीवन जैसे बोझ हो कोई भारी
दिल कहता है रोएँ लेकिन हँसना पड़ता है

कभी कभी इतनी धुंधली हो जाती है तस्वीरें
पता नहीं चलता कदमों में कितनी हैं ज़ंजीरें
पाँव बंधे होते हैं लेकिन चलना पड़ता है

रूठ के जाने वाले बादल टूटने वाला तारा
किस को ख़बर किन लम्हों में बन जाए कौन सहारा
दुनिया जैसी भी हो रिश्ता रखना पड़ता है