आबिदा – फैज़ [ Faiz By Abida] एल्बम – १

Listen to Abida Parveen and expereince the magic, as how she captures Faiz Ahmad Faiz’s poetry into this album. It is really soulful and a must listen album.

गुल हुई जाती है अफ़सुर्दा सुलगती हुई शाम

गुल हुई जाती है अफ़सुर्दा सुलगती हुई शाम
धुल के निकलेगी अभी, चश्म-ए-महताब से रात

और मुश्ताक निगाहों की सुनी जायेगी
और उन हाथों से मस्स होंगे ये तरसे हुए हाथ
उनका आँचल है कि रुख़सार के पैराहन हैं
कुछ तो है जिससे हुई जाती है चिलमन रंगीं

जाने उस ज़ुल्फ़ की मौहूम घनी छांवों में
टिमटिमाता है वो आवेज़ा अभी तक कि नहीं

आज फिर हुस्न-ए-दिलारा की वही धज होगी,
वो ही ख्वाबीदा सी आँखें, वो ही काजल की लकीर

रंग-ए-रुख्सार पे हल्का-सा वो गाज़े का गुबार
संदली हाथ पे धुंधली-सी हिना की तहरीर
अपने अफ़कार की अशार की दुनिया है यही
जाने मज़मूं है यही, शाहिदे-ए-माना है यही

अपना मौज़ू-ए-सुखन इन के सिवा और नही
तबे शायर का वतन इनके सिवा और नही
ये खूं की महक है कि लब-ए-यार की खुशबू
किस राह की जानिब से सबा आती है देखो

गुलशन में बहार आई कि ज़िंदा हुआ आबाद
किस सिंध से नग्मों की सदा आती है देखो

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नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तजू ही सही 

नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तजू ही सही
नहीं विसाल मयस्सर तो आरजू ही सही

ना तन में खून फराहम ना अश्क आँखों में
नमाज़-ए-शौक़ तो वाजिब हैं बे-वजू ही सही

किसी तरह तो जमें बज़्म मयकदे वालों
नहीं जो बादा-ओ-सागर तो हा-ओ-हू ही सही

गर इंतज़ार कठिन हैं तो जब तलक ऐ दिल
किसी के वादा-ए-फर्दा की गुफ्तगू ही सही

दयार-ए-गैर में महरम अगर नहीं कोई
तो ‘फ़ैज़’ ज़िक्र-ए-वतन अपने रू-ब-रू ही सही

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हमने सब शेर में सँवारे थे

हमने सब शेर में सँवारे थे
हमसे जितने सुख़न तुम्हारे थे

रंगों ख़ुश्बू के, हुस्नो-ख़ूबी के
तुमसे थे जितने इस्तिआरे थे

तेरे क़ौलो-क़रार से पहले
अपने कुछ और भी सहारे थे

जब वो लालो-गुहर हिसाब किए
जो तरे ग़म ने दिल पे वारे थे

मेरे दामन में आ गिरे सारे
जितने तश्ते-फ़लक में तारे थे

उम्रे-जाविदे की दुआ करते थे
‘फ़ैज़’ इतने वो कब हमारे थे

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