अहमद नदीम क़ासमी एक तरक़्क़ी-पसंद शायर के रूप में जाने जाते हैं. महफ़िल पर पढ़िए उनकी एक बेहतरीन ग़ज़ल जिसका शीर्षक है – फूलों से लहू कैसे टपकता हुआ देखूँ
फूलों से लहू कैसे टपकता हुआ देखूँ – अहमद नदीम क़ासमी
फूलों से लहू कैसे टपकता हुआ देखूँ
आँखों को बुझा लूँ कि हक़ीक़त को बदल दूँ
हक़ बात कहूंगा मगर है जुर्रत-ए-इज़हार
जो बात न कहनी हो वही बात न कह दूँ
हर सोच पे ख़ंजर-सा गुज़र जाता है दिल से
हैराँ हूँ कि सोचूँ तो किस अन्दाज़ में सोचूँ
आँखें तो दिखाती हैं फ़क़त बर्फ़-से पैकर
जल जाती हैं पोरें जो किसी जिस्म को छू लूँ
चेहरे हैं कि मरमर से तराशी हुई लौहें
बाज़ार में या शहरे-ख़मोशाँ में खड़ा हूँ
सन्नाटे उड़ा देते हैं आवाज़ के पुर्ज़े
यारों को अगर दस्त-ए-मुसीबत में पुकारूँ
मिलती नहीं जब मौत भी मांगे से, तो या रब
हो इज़्न तो मैं अपना सलीब आप उठा लूँ