महमूद शाम पाकिस्तान के प्रतिष्ठित पत्रकार शायर हैं. पढ़िए उनकी एक बेहद खूबसूरत ग़ज़ल “नज़र किसी की नज़र से नहीं उलझती थी”
नज़र किसी की नज़र से नहीं उलझती थी
वो दिन भी थे कि यूँही ज़िंदगी गुज़रती थी
सितारे अपने लिए ख़्वाहिशों की मंज़िल थे
हसीन रात हमें चाँदनी पिलाती थी
रहे थे अपनी हवाओं में एक उम्र मगर
बिखर पड़े तो हर इक गाम अपनी हस्ती थी
यही बहुत था कि कुछ लोग आ के कहते थे
वो मेरा ज़िक्र बहुत मुख़्लिसाना करती थी
नज़र में प्यार भी था और तकल्लुफ़ात भी थे
कहा करेंगे कभी हम अजीब लड़की थी
ख़मोश रहती थी गहरे समुंदरों की तरह
वो आँखें जिन से निरी शाइ’री बिखरती थी
उसे मिले तो फिर इस बात का सुराग़ मिला
हमें ये ज़िंदगी क्यूँ इतनी प्यारी लगती थी
न जाने कितने ही सफ़्हों पे दिल बिखेरा मगर
न कह सके तो वो इक बात ही जो कहनी थी