अहमद फ़राज़ आधुनिक उर्दू के सर्वश्रेष्ठ शायरों में से हैं. उनकी शायरी दर्द और मोहब्बत की शायरी है. पेश है फ़राज़ की एक बेहतरीन ग़ज़ल “दोस्त बन कर भी नहीं साथ निभानेवाला“.
दोस्त बन कर भी नहीं साथ निभानेवाला
वही अन्दाज़ है ज़ालिम का ज़मानेवाला
अब उसे लोग समझते हैं गिरफ़्तार मेरा
सख़्त नादिम है मुझे दाम में लानेवाला
सुबह-दम छोड़ गया निक़हते-गुल की सूरत
रात को ग़ुंचा-ए-दिल में सिमट आने वाला
क्या कहें कितने मरासिम थे हमारे उससे
वो जो इक शख़्स है मुँह फेर के जानेवाला
तेरे होते हुए आ जाती थी सारी दुनिया
आज तन्हा हूँ तो कोई नहीं आनेवाला
मुंतज़िर किसका हूँ टूटी हुई दहलीज़ पे मैं
कौन आयेगा यहाँ कौन है आनेवाला
मैंने देखा है बहारों में चमन को जलते
है कोई ख़्वाब की ताबीर बतानेवाला
क्या ख़बर थी जो मेरी जान में घुला है इतना
है वही मुझ को सर-ए-दार भी लाने वाला
तुम तक़ल्लुफ़ को भी इख़लास समझते हो “फ़राज़”
दोस्त होता नहीं हर हाथ मिलानेवाला
निक़हते-गुल= गुलाब की ख़ुश्बू
सर-ए-दार = सूली तक
इख़लास = प्रेम