Presenting the ghazal “Aaina Dekh Apna Sa Muh Leke Rah Gaye”, written by the Urdu Poet Mirza Ghalib.
आईना देख अपना सा मुँह ले के रह गए
आईना देख अपना सा मुँह ले के रह गए
साहब को दिल न देने पे कितना ग़ुरूर था
क़ासिद को अपने हाथ से गर्दन न मारिए
उस की ख़ता नहीं है ये मेरा क़ुसूर था
ज़ोफ़-ए-जुनूँ को वक़्त-ए-तपिश दर भी दूर था
इक घर में मुख़्तसर सा बयाबाँ ज़रूर था
ऐ वाए-ग़फ़लत-ए-निगह-ए-शौक़ वर्ना याँ
हर पारा संग लख़्त-ए-दिल-ए-कोह-ए-तूर था
दर्स-ए-तपिश है बर्क़ को अब जिस के नाम से
वो दिल है ये कि जिस का तख़ल्लुस सुबूर था
हर रंग में जला ‘असद’-ए-फ़ित्ना-इन्तिज़ार
परवाना-ए-तजल्ली-ए-शम-ए-ज़ुहूर था
शायद कि मर गया तिरे रुख़्सार देख कर
पैमाना रात माह का लबरेज़-ए-नूर था
जन्नत है तेरी तेग़ के कुश्तों की मुंतज़िर
जौहर सवाद-ए-जल्वा-ए-मिज़्गान-ए-हूर था