गजानन माधव मुक्तिबोध को प्रगतिशील कविता और नयी कविता के बीच का एक सेतु भी माना जाता है. प्रस्तुत है उनकी एक कविता – “मुझे कदम-कदम पर”.
मुझे कदम-कदम पर
चौराहे मिलते हैं
बांहें फैलाए!
एक पैर रखता हूँ
कि सौ राहें फूटतीं,
मैं उन सब पर से गुजरना चाहता हूँ,
बहुत अच्छे लगते हैं
उनके तजुर्बे और अपने सपने….
सब सच्चे लगते हैं,
अजीब-सी अकुलाहट दिल में उभरती है,
मैं कुछ गहरे में उतरना चाहता हूँ,
जाने क्या मिल जाए!
मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक पत्थर में
चमकता हीरा है,
हर एक छाती में आत्मा अधीरा है
प्रत्येक सस्मित में विमल सदानीरा है,
मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक वाणी में
महाकाव्य पीडा है,
पलभर में मैं सबमें से गुजरना चाहता हूँ,
इस तरह खुद को ही दिए-दिए फिरता हूँ,
अजीब है जिंदगी!
बेवकूफ बनने की खातिर ही
सब तरफ अपने को लिए-लिए फिरता हूँ,
और यह देख-देख बडा मजा आता है
कि मैं ठगा जाता हूँ…
हृदय में मेरे ही,
प्रसन्नचित्त एक मूर्ख बैठा है
हंस-हंसकर अश्रुपूर्ण, मत्त हुआ जाता है,
कि जगत…. स्वायत्त हुआ जाता है।
कहानियां लेकर और
मुझको कुछ देकर ये चौराहे फैलते
जहां जरा खडे होकर
बातें कुछ करता हूँ
…. उपन्यास मिल जाते ।