वसन्त गीत – अज्ञेय

सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ हिंदी भाषा के कवि, लेखक, पत्रकार थे. वे नयी कविता आंदोलन और प्रयोगवाद के लिए जाने जाते थे. प्रस्तुत है उनकी एक कविता “वसन्त-गीत”

Agyeya

वसन्त गीत

मलय का झोंका बुला गया:
खेलते से स्पर्श से वो रोम-रोम को कँपा गया-
जागो, जागो, जागो सखि, वसन्त आ गया! जागो!
पीपल की सूखी डाल स्निग्ध हो चली,

सिरिस ने रेशम से वेणी बाँध ली;
नीम के भी बौर में मिठास देख हँस उठी है कचनार की कली!
टेसुओं की आरती सजा के बन गयी वधू वनस्थली!
स्नेह-भरे बादलों से व्योम छा गया-

जागो, जागो, जागो सखि, वसन्त आ गया! जागो!
चेत उठी ढील देह में लहू की धार,
बेध गयी मानस को दूर की पुकार
गूँज उठा दिग्दिगन्त चीन्ह के दुरन्त यह स्वर बार-बार:

सुनो सखि, सुनो बन्धु! प्यार ही में यौवन है यौवन में प्यार!
आज मधु-दूत निज गीत गा गया-
जागो, जागो, जागो, सखि, वसन्त आ गया! जागो!