टूटी हुई बिखरी हुई – शमशेर बहादुर सिंह

Read the poem “Tooti Hui Bikhri Hui” by Shamsher Bahadur Singh. शमशेर बहादुर सिंह सम्पूर्ण आधुनिक हिन्दी कविता में एक अति विशिष्ट कवि के रूप में मान्य है. उनकी एक चर्चित कविता “टूटी हुई बिखरी हुई ” पढ़े.

Shamsher Bahadur Singh

टूटी हुई बिखरी हुई चाय
की दली हुई पाँव के नीचे
पत्तियाँ
मेरी कविता

बाल, झड़े हुए, मैल से रूखे, गिरे हुए,
गर्दन से फिर भी चिपके
… कुछ ऐसी मेरी खाल,
मुझसे अलग-सी, मिट्टी में
मिली-सी

दोपहर बाद की धूप-छाँह में खड़ी इंतजार की ठेलेगाड़ियाँ
जैसे मेरी पसलियाँ…
खाली बोरे सूजों से रफू किये जा रहे हैं…जो
मेरी आँखों का सूनापन हैं

ठंड भी एक मुसकराहट लिये हुए है
जो कि मेरी दोस्‍त है।

कबूतरों ने एक गजल गुनगुनायी . . .
मैं समझ न सका, रदीफ-काफिये क्‍या थे,
इतना खफीफ, इतना हलका, इतना मीठा
उनका दर्द था।

आसमान में गंगा की रेत आईने की तरह हिल रही है।
मैं उसी में कीचड़ की तरह सो रहा हूँ
और चमक रहा हूँ कहीं…
न जाने कहाँ।

मेरी बाँसुरी है एक नाव की पतवार –
जिसके स्‍वर गीले हो गये हैं,
छप्-छप्-छप् मेरा हृदय कर रहा है…
छप् छप् छप्व

वह पैदा हुआ है जो मेरी मृत्‍यु को सँवारने वाला है।
वह दुकान मैंने खोली है जहाँ ‘प्‍वाइजन’ का लेबुल लिए हुए
दवाइयाँ हँसती हैं –
उनके इंजेक्‍शन की चिकोटियों में बड़ा प्रेम है।

वह मुझ पर हँस रही है, जो मेरे होठों पर एक तलुए
के बल खड़ी है
मगर उसके बाल मेरी पीठ के नीचे दबे हुए हैं
और मेरी पीठ को समय के बारीक तारों की तरह
खुरच रहे हैं
उसके एक चुम्‍बन की स्‍पष्‍ट परछायीं मुहर बनकर उसके
तलुओं के ठप्‍पे से मेरे मुँह को कुचल चुकी है
उसका सीना मुझको पीसकर बराबर कर चुका है।

मुझको प्‍यास के पहाड़ों पर लिटा दो जहाँ मैं
एक झरने की तरह तड़प रहा हूँ।
मुझको सूरज की किरनों में जलने दो –
ताकि उसकी आँच और लपट में तुम
फौवारे की तरह नाचो।

मुझको जंगली फूलों की तरह ओस से टपकने दो,
ताकि उसकी दबी हुई खुशबू से अपने पलकों की
उनींदी जलन को तुम भिगो सको, मुमकिन है तो।
हाँ, तुम मुझसे बोलो, जैसे मेरे दरवाजे की शर्माती चूलें
सवाल करती हैं बार-बार… मेरे दिल के
अनगिनती कमरों से।

हाँ, तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मछलियाँ लहरों से करती हैं
…जिनमें वह फँसने नहीं आतीं,
जैसे हवाएँ मेरे सीने से करती हैं
जिसको वह गहराई तक दबा नहीं पातीं,
तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मैं तुमसे करता हूँ।

आईनो, रोशनाई में घुल जाओ और आसमान में
मुझे लिखो और मुझे पढ़ो।
आईनो, मुसकराओ और मुझे मार डालो।
आईनो, मैं तुम्‍हारी जिंदगी हूँ।

एक फूल उषा की खिलखिलाहट पहनकर
रात का गड़ता हुआ काला कम्‍बल उतारता हुआ
मुझसे लिपट गया।

उसमें काँटें नहीं थे – सिर्फ एक बहुत
काली, बहुत लम्बी जुल्‍फ थी जो जमीन तक
साया किये हुए थी… जहाँ मेरे पाँव
खो गये थे।

वह गुल मोतियों को चबाता हुआ सितारों को
अपनी कनखियों में घुलाता हुआ, मुझ पर
एक जिन्‍दा इत्रपाश बनकर बरस पड़ा –

और तब मैंने देखा कि मैं सिर्फ एक साँस हूँ जो उसकी
बूँदों में बस गयी है।
जो तुम्‍हारे सीनों में फाँस की तरह खाब में
अटकती होगी, बुरी तरह खटकती होगी।

मैं उसके पाँवों पर कोई सिजदा न बन सका,
क्‍योंकि मेरे झुकते न झुकते
उसके पाँवों की दिशा मेरी आँखों को लेकर
खो गयी थी।

जब तुम मुझे मिले, एक खुला फटा हुआ लिफाफा
तुम्‍हारे हाथ आया।
बहुत उसे उलटा-पलटा – उसमें कुछ न था –
तुमने उसे फेंक दिया : तभी जाकर मैं नीचे
पड़ा हुआ तुम्‍हें ‘मैं’ लगा। तुम उसे
उठाने के लिए झुके भी, पर फिर कुछ सोचकर
मुझे वहीं छोड़ दिया। मैं तुमसे
यों ही मिल लिया था।

मेरी याददाश्‍त को तुमने गुनाहगार बनाया – और उसका
सूद बहुत बढ़ाकर मुझसे वसूल किया। और तब
मैंने कहा – अगले जनम में। मैं इस
तरह मुसकराया जैसे शाम के पानी में
डूबते पहाड़ गमगीन मुसकराते हैं।

मेरी कविता की तुमने खूब दाद दी – मैंने समझा
तुम अपनी ही बातें सुना रहे हो। तुमने मेरी
कविता की खूब दाद दी।

तुमने मुझे जिस रंग में लपेटा, मैं लिपटता गया :
और जब लपेट न खुले – तुमने मुझे जला दिया।
मुझे, जलते हुए को भी तुम देखते रहे : और वह
मुझे अच्‍छा लगता रहा।

एक खुशबू जो मेरी पलकों में इशारों की तरह
बस गयी है, जैसे तुम्‍हारे नाम की नन्‍हीं-सी
स्‍पेलिंग हो, छोटी-सी प्‍यारी-सी, तिरछी स्‍पेलिंग।

आह, तुम्‍हारे दाँतों से जो दूब के तिनके की नोक
उस पिकनिक में चिपकी रह गयी थी,
आज तक मेरी नींद में गड़ती है।

अगर मुझे किसी से ईर्ष्‍या होती तो मैं
दूसरा जन्‍म बार-बार हर घंटे लेता जाता
पर मैं तो जैसे इसी शरीर से अमर हूँ –
तुम्‍हारी बरकत!

बहुत-से तीर बहुत-सी नावें, बहुत-से पर इधर
उड़ते हुए आये, घूमते हुए गुजर गये
मुझको लिये, सबके सब। तुमने समझा
कि उनमें तुम थे। नहीं, नहीं, नहीं।
उसमें कोई न था। सिर्फ बीती हुई
अनहोनी और होनी की उदास
रंगीनियाँ थीं। फकत।