संस्कृति का प्रश्न और सांस्कृतिक हृदय – सुमित्रानंदन पंत की दो कवितायेँ

पढ़िये सुमित्रानंदन पंत की दो कवितायेँ – संस्कृति का प्रश्न और सांस्कृतिक हृदय, जो हमारे आज के समय के लिए भी अनुकूल हैं.

sumitranandan pant

 

संस्कृति का प्रश्न / सुमित्रानंदन पंत

राजनीति का प्रश्न नहीं रे आज जगत के सन्मुख,
अर्थ साम्य भी मिटा न सकता मानव जीवन के दुख।
व्यर्थ सकल इतिहासों, विज्ञानों का सागर मंथन,
वहाँ नहीं युग लक्ष्मी, जीवन सुधा, इंदु जन मोहन!

आज वृहत सांस्कृतिक समस्या जग के निकट उपस्थित,
खंड मनुजता को युग युग की होना है नव निर्मित,
विविध जाति, वर्गों, धर्मों को होना सहज समन्वित,
मध्य युगों की नैतिकता को मानवता में विकसित।

जग जीवन के अंतर्मुख नियमों से स्वयं प्रवर्तित
मानव का अवचेतन मन हो गया आज परिवर्तित।
वाह्य चेतनाओं में उसके क्षोभ, क्रांति, उत्पीड़न,
विगत सभ्यता दंत शून्य फणि सी करती युग नर्तन!

व्यर्थ आज राष्ट्रों का विग्रह, औ’ तोपों का गर्जन,
रोक न सकते जीवन की गति शत विनाश आयोजन।
नव प्रकाश में तमस युगों का होगा स्वयं निमज्जित,
प्रतिक्रियाएँ विगत गुणों की होंगी शनैः पराजित!

सांस्कृतिक हृदय / सुमित्रानंदन पंत

कृषि युग से वाहित मानव का सांस्कृतिक हृदय
जो गत समाज की रीति नीतियों का समुदय,
आचार विचारों में जो बहु देता परिचय,
उपजाता मन में सुख दुख, आशा, भय, संशय,
जो भले बुरे का ज्ञान हमें देता निश्चित
सामंत जगत में हुआ मनुज के वह निर्मित।

उन युग स्थितियों का आज दृश्य पट परिवर्तित,
प्रस्तर युग की सभ्यता हो रही अब अवसित।
जो अंतर जग था वाह्य जगत पर अवलंबित
वह बदल रहा युगपत युग स्थितियों से प्रेरित।
बहु जाति धर्म औ’ नीति कर्म में पा विकास
गत सगुण आज लय होने को: औ’ नव प्रकाश
नव स्थितियों के सर्जन से हो अब शनैः उदय
बन रहा मनुज की नव आत्मा, सांस्कृतिक हृदय।