रिश्तों को घर दिखलाओ – कुंवर बेचैन

हिंदी ग़ज़ल और गीत के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर कुंवर बेचैन की एक बेहद खूबसूरत कविता पढ़िए – “रिश्तों को घर दिखलाओ”.

Kunwar Bechain

माँ की साँस

पिता की खाँसी

सुनते थे जो पहले, अब वे कान नहीं।

छोड़ चेतना को

जड़ता तक

आना जीवन का

पत्थर में परिवर्तित पानी

मन के आँगन का-

यात्रा तो है; किंतु सही अभियान नहीं।

सुनते थे जो पहले, अब वे कान नहीं।

संबंधों को

पढ़ती है

केवल व्यापारिकता

बंद कोठरी से बोली

शुभचिंतक भाव-लता-

‘रिश्तों को घर दिखलाओ, दूकान नहीं।’

सुनते थे जो पहले, अब वे कान नहीं।